सोच रहा बैठा एकाकी | Kavita Soach Raha
सोच रहा बैठा एकाकी ( Soach Raha Baitha Ekaki ) बहुत अकेलापन लगता है जनसंकुल संसार में। जन्मान्तर का ऋणी, गई है पूंजी सभी उधार में। सोच रहा बैठा एकाकी, अभी और है कितना बाकी। रिक्त हस्त कैसे चुकताऊं, मेरे नाम लगी जो बाकी। शिथिल अंग हो रहे करूं क्या मैं इसके प्रतिकार में। कालधार … Continue reading सोच रहा बैठा एकाकी | Kavita Soach Raha
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