बंजारा के मुक्तक | Banjara ke Muktak

प्रतिबिंब आंगन के बिरवे पर है फैला सांझ का प्रतिबिंब कांसे की थाली में हो जैसे चांद का प्रतिबिंब ठंडी-ठंडी आंच देह के भीतर अनुभूत-सी होती इसे ही कहते हैं — प्यार की आग का प्रतिबिंब! आज शहर में एक बादल दूर आसमां पर — घना घूम रहा है एक पागल गली – गली खून … Continue reading बंजारा के मुक्तक | Banjara ke Muktak