बंजारा के मुक्तक | Banjara ke Muktak
ये दुनिया हरामी है
दोस्त! हंसकर जीवन बीता लें, ये दुनिया हरामी है
यहां रिश्तों के पैरों में पड़ी जंजीरें गुलामी है
सभी दिल के मारों की परिस्थितियां है एक जैसी
सच्चे प्यार का मतलब तो नाकामी ही नाकामी है
मैं तो खुद भी
दोस्त! कैसे मान लूं कि तू किसी के प्यार में था
मैं तो खुद भी पगले, उसी के इंतजार में था
मुझसे कह दिया होता कभी अपने दिल की बात
तेरे सिवा और कौन मेरा –इस संसार में था!
दोस्त!
दोस्त! सच बता कि तूने किस किसको दगा दिया
आती हुयी बहार सारी घर के बाहर भगा दिया
तेरे भरोसे मैं नींद में खवाब देख रहा था –
तूने जमाने की तरह मुझे –धोके से जगा दिया.
मंच के नीचे
मंच के नीचे खड़ा कवि मुट्ठियां अपनी भींचने लगा
सीढ़ी चढ़ने की नाकामी को पलकों में मींचने लगा
इस काट-छांंट प्रतिद्वंद्वता के दौर में आजकल, भाई
एक डायस तक पहुंचता कि दूसरा टांग खींचने लगा…
मंच साधने को
मंच साधने को कर पांच हजार का जुगाड़ लोगे
कविता के नाम पर यहां किस्सों का कबाड़ लोगे
वो अक्सर माईक के आगे, मां -बहन बीवी करता है
आप बुला कर उसे,उसके बाप का क्या बिगाड़ लोगे?
बाजारू हो गये
मंच बोलियों और टोलियों में बंटे, बाजारू हो गये
प्रसिद्धि पाने की चाह लिये लोग बीमारू हो गये
मैं जहां डंके की चोट, सृजन नया गढ़ता रहा हूं –
मेरे साथी नक्कल मारने पर वहीं उतारू हो गये!
कुछ
कुछ ईमानदार ऐसे भी मिले झूठ जिन्होंने पुचकारा नहीं
कुछ वजनदार ऐसेभी दिखे लोभ जिन्होने स्वीकारा नहीं
कुछ के दिल में है प्यार, कुछ के दिल में नफरत
कुछ समझदार ऐसे भी रहे कर्ज जिन्होंने उतारा नहीं!
पोथी से पर्ची हुये
कुछ साॅर्टकट के चक्कर में पोथी से पर्ची हुये
कुछ मीठा खाने के खातिर बंदर से बावर्ची हुये
कुछ अपने को बहुत ज्यादा अकलमंद मानते रहे
कुछ वैसे भी है यहां जो, निठल्ले से नकलची हुये!
लिख रहे हैं
कुछ लोग भाव के अभाव में लिख रहे हैं
कुछ नहीं तो आंतरिक तनाव में लिख रहे है
कुछ इतने निर्लज्ज हैं कि मौलिकता के नाम पर
कुछ दूसरों की रचना के प्रभाव में लिख रहे हैं!
किस्मत
किस्मत भी मजबूर को चाहे जैसा राग– रूलाती है
हाथों पर लिखकर लकीरों को आंसुओं से मिटाती है
कमज़ोर कांधों की ये विकट परिस्थिति कभी-कभी
एक तरफ डोली तो –दूसरी तरफ अर्थी उठाती है!
आदमी
आदमी अपनों का दर्द देख – कितना लाचार होता है
परेशान-सा सारी जिन्दगी को – कोसता बेजार होता है
बसे – बसाये संसार का सुख — हो जाता है चौपट
जब भी घर का कोई — सदस्य बीमार होता है..!
दुर्भाग्य की परछाई
जहां दुर्भाग्य की परछाई है — गम भी वहीं है
इस मकान से परे उजाला –शहर में कहीं है
बेचारगी इतनी कि पेट भरे परिवार का कैसे कोई
मां चूल्हा जलाती पर–कनस्तर में आटा नहीं है!
दोस्ती दर्द के संबंधों का दस्तावेज
दोस्ती दर्द के संबंधों का दस्तावेज है खुला हुआ
मेरे यार! हमारी जिन्दगी का वक्त इसमें है मिला हुआ
ये जो गुलाब है गज़लों का, बड़ी मुश्किल से लाया था
ये तेरे जूड़े में न सही, मेरी सांसों में है खिला हुआ…
दोस्ती बहता हुआ दरिया
दोस्ती बहता हुआ दरिया और ऊंची लहर भी है
दोस्ती मिलन की चौपाल और बिछड़ा शहर भी हे
दोस्ती को दौलत के पैमाने पर मत तौल, दोस्त!
दोस्ती अमृत की धार भी और मीठा जहर भी है…
न कोई दोस्ती
न कोई दोस्ती की उसने –न दुश्मनी ही निभाई
चाहत की डोर थामे –पतंग मैंने नाहक ही उड़ाई
ये भी नहीं सोचा– बेवजह मुझे छोड़ जाने वाले!
तेरी इस हरकत पर होगी –प्यार की जग हंसाई …
जिन्दगी टाॅप क्लास
जिन्दगी टाॅप क्लास केबिन में हांपती हुयी लेटी होगी
कोई अहम की चेयर पर पालथी मार के बैठी होगी
किसी को मुस्कुराहट बिखेरने की आदत होगी बज्म में
कोई दिल–जली रूठ करके अपनों से ऐंठी होगी!
जिन्दगी के जंगल में
जिन्दगी के जंगल में कहीं धूप- छांव बराबर नहीं
दूर तक -पर्वतों से सटा सहरा अथवा समंदर नहीं
घने –घने पेड़ों-सी परेशानी पर कैसे फतह पायें
जडों में जकड़े आदमी का इतना ऊंचा मुकद्दर नहीं!
जिन्दगी एक पहेली
जिन्दगी एक पहेली है आदमी इसे बूझता ही रहेगा
जीने का नया हर तरीका उसे सूझता ही रहेगा
लाख तूफान आये मंजिल की जटिल राहों में मगर
सागर की लहरों से लड़कर, नाविक जूझता ही रहेगा.
घर की गरीबी
घर की गरीबी छिपाने पर विवश एक आंगन देखा
पीछे कमरे में बुखार से कांपता मां का बदन देखा
उस आदमी को मेरा सलाम कि मैंने उसे बाजार में
अर्थी के लिये बेचते हुये –बीवी के कंगन देखा!
घर की इज्जत
सबों की कामुक नजरें उसके जोबन पे गड़ी हो
घर की इज्जत जब घर की चौखट से बड़ी हो
क्या कहें ,उस अपमान में घूट -घूट जीने वाले को
जिसे जल-जलकर आदत, आग पीने की पड़ी हो.
हिम्मत थी
हिम्मत थी डगमगायी और इरादे भी हिल गये थे
आसान रास्तों में ही नये अवरोध मिल गये थे
घर की गरज का झुरमुट छांव को तरसता रहा
चाहत थी ऐसी कि पांव कालीन पे छिल गये थे!
सारे भोग
सारे भोग सिमटे कि रूप की रानियों के हो गये
कुछ दर्द बचे थे,वो भी कलम के, दानियों के हो गये
अश्क उनके शब्दों में ढ़ले और मोती बनकर चमके-
मेरे तो बहुतेरे प्रयास ही यहां पानियों के हो गये…
तुम्हें
तुम्हें अपने रास्ते और मुझे अपने रास्ते चलना होगा
तुम्हें पढ़ाई के और मुझे फर्ज के वास्ते संभलना होगा
हमें दुनिया की कोई ताकत स्वयं मिला नहीं सकती
हमें मिलना ही है तो,अपनी कोशिशों से मिलना होगा!
बददुआ
तुम्हारी हंसी होंठो पर चुभन कांटों की ही लाये
तुम अगर सांस लो खंजर –यादों के गड़ जाये
मुझे भूल जाने वाले मेरी –ये बददुआ है कि –
तुम रोओ भी तो आंसू –आंख में ना आये!
सावन की फूहारें
सावन की फूहारें दिल में उसके शोरगुल मचा दे
गोरी- गोरी -सी हथेली पर प्यार की मेंहदी रचा दे
कहते हैं वक्त के पांव, लौट कर भी आते हैं बंजारा
वो कभी आये बचपन लिये,उसे बारिश फिर नचा दे.
कोई शक्ति
कोई दुआ कोई दवा कोई शक्ति कितना जीलायेगी
एक दिन आना ही है तो, मुझे भी मौत आ जायेगी
बस.. मरने से पहले तूझे देखने की चाह है, प्रिय!
यह चाह मुझे कब तलक, यूं तेरी तरह सतायेगी?
तुमने
तुमने जो चोट दी है मुझे उसकी घातें तुम्हें रूलायेगी
मेरा चेहरा मेरे अहसान और मेरी बातें तुम्हें रुलायेगी
कभी तो अकेले में अचानक याद आयेगी मेरी तब-
खाली चादर की सिलवटों पर तन्हा रातें तुम्हें रुलायेगी!
ये बेचारी
ये बेचारी सबसे मुस्कुराती थी सबको इससे प्यार था
कल रात, सूनसान सड़क पर इसका हुआ शिकार था
ये चष्मा सेन्डिल जिंस स्कूटी वाली सुंदर एक लड़की थी
आज सरिया कांच स्टीक राॅड का मृत देह पर सिंगार था
हास्टल की खुली खिड़की
हास्टल की खुली खिड़की से चांद दीये- सा जलता रहा
खामोश अंधेरों को भी रात का कालापन खलता रहा
हर कोई वहां आम की टहनी पर चढ़ने को कामातुर था-
यही क्रम लगातार सुबह तक -चलता रहा.. चलता रहा!
मम्मी! पापा
मम्मी! पापा से मत बताना कि मेरे साथ गंदा हुआ
किसी राक्षस ने जबरदस्ती कर मेरे कौमार्य को छुआ
मम्मी! पापा कमजोर -दिल है, लाश नहीं देख पायेंगे
आप उन्हें दिखाना बस दूर — चिता का उठता धुंआ…
उसने
उसने नाजायज ढंग से जान पहचान का फायदा उठाया
गुपचुप आ कमरे में मुंह था रूमाल से बांध कर दबाया
मैं चीखती इसके पहले उसने टाप मेरा ब्लेड दिखा चिरा
और फिर उदर के नीचे,कुछ अन-अपेक्षित -सा घुमाया!
पापा!
पापा! अपने पास शादी के लिये पर्याप्त दहेज नहीं है
मुझे इस बाहरी दुनिया का उतना नालेज नहीं है
पढ़ – लिख कर कैरियर बनाऊं भी तो कैसे भला
अब इस महानगर में आदर्श कोई कालेज नहीं है.
बेवफा
पढ़ाई करनी है जरूरी किताबों का बोझ ढो के करो
हंसाई करने लगो तो सहेलियों के संग रो के करो
बेवफा ! तुम को हरेक काम में परेशानी ही पेश आये
शादी करना जो चाहो अगर,वो भी मजबूर हो के करो!
पास मेरे
कलाई में चूड़ियां, माथे पे बिंदिया लगाना ही पड़ेगा
किसी दिन तुम को भी पराये घर जाना ही पड़ेगा
तुम पढ़- लिख कर खूब बड़ी डाॅक्टर बन जाओ,पर
तन्हाईयों का इलाज करने पास मेरे आना ही पड़ेगा!
दिल तो
दिल तो अपनी दुनिया में है गुमसुम- सा खोता
दिल रोते हुये भी हंसता और हंसते हुये है रोता
किसी को चाह लेना ही सबसे बड़ा स्वाध्याय उसका
प्यार में चाहत का दूसरा कोई सलेबरस् नहीं होता!
हे कवि!
हे कवि! मंच चढ़ने से पहले, किसी के पांव छू लो
ऊंचा – नीचा जिसको भी बोलो उसी के पांव छू लो
टांग अगर ना खींच सको, आजू –बाजू वाले की
खडा़ आपके आगे है यह, इसी के पांव छू लो…
उनका पाकिट भरा
उनका पाकिट भरा– भरा, मेरी खाली थैली क्यों है
दोनों व्यंग्य कवि लेकिन अलग– अलग शैली क्यों है
अब मंचों पर देखकर गुटीय प्रतिद्वंद्वता को है लगता-
उनकी उजली कविता से मेरी कविता मैली क्यों है?
एक कवि
एक कवि अपने को मंचाधीश– इधर बता रहा है
एक कवि नवोदिता का खर्चा– पूरा उठा रहा है
एक साहित्य के नाम– फिल्मी पैरोडी सुना रहा है
तो, एक सठीया सब को –तारूण्यता दिखा रहा है!
साहित्य में बासी कढ़ी
मंचों पर भड़काऊ तरिके से बकवास उछालते में रहे
साहित्य में बासी कढ़ी को पका कर उबालते में रहे
कविता बेसिर- पैर की,लिख-लिख करके कुछ लोग
बेकार ही महान कवि बनने के, मीठे मुगालते में रहे!
कविता की कसौटी
कविता की कसौटी पर थोड़ा तो खरा उतरना चाहिये
कभी -कभी दिल की गलियों से भी गुजरना चाहिये
यहां शब्दों का अहसास है तस्वीरों में ढ़ल जाता –
इस आईने के आगे सोच -समझ कर संवरना चाहिये!
कविता के नाम पर
कविता के नाम पर कयामत —ढ़ा रहे हैं लोग
फटे स्वर में सरस्वती वंदना— गा रहे हैं लोग
अब लफ्ज़ों की लचक में कोई आकर्षण नहीं दिखता
मात्र लिखने के लिये लिखे —जा रहे हैं लोग!
स्वतंत्रता सेनानी
स्वतंत्रता सेनानी के दस्तावेज में कोई ईनाम नहीं था
पुलिसिये डंडे पर लिखा एक भी पैगाम नहीं था
पर,बाबूजी को मरते वक्त इतमिनान था अपने पर
कि उनका बेटा अपने देश में, अब गुलाम नहीं था!
बिरसा मुंड़ा
बिरसा मुंड़ा के लिये पृथ्वी आबा जैसी सगी थी
डोंबारी के पर्वत पर ज्योत, उम्मीद की जगी थी
अपना प्रदेश अपनी स्वतंत्रता के नारे के साथ- साथ
पोड़ाहाट के जंगलों की घास, तीर बनकर उगी थी!
मतवालों
अंग्रेजों ने कारतूसों में थी गाय की चर्बी भर दी
मंगल पांडे ने फिर बंदूक उठाने से मना कर दी
ये विद्रोह धनसिंह गुर्जर सहित ऐसे फैलता गया कि
जहां अफवाह थी, वहां आग, मतवालों ने ही धर दी!
लक्ष्मीबाई
जिसकी कहानी सुन ग्वालियर का जर्रा -जर्रा कराहा था
जिसका राष्ट्रप्रेम अंग्रेजों ने भी बार – बार सराहा था
उस लक्ष्मीबाई को छिपकर, ह्यूरोज ने गोली थी मारी
इस धोके का साक्षी आज भी रामबाग का तिराहा था!
ऊदल ने लिया प्रण
ऊदल ने लिया प्रण कि व्यर्थ मेरा वार न जाये
सांसों से भी तेज तलवार की धार न जाये
जो बाप का बैरी ना मौत के घाट उतर सकूं
तो मेरा मृत मांस किसी चील के गार न जाये!
ध्यान रहे
फिर राज -दरबार में छिप कर बैठा कातिल न हो
शौर्य किसी का बर्बाद करना जिसकी मंजिल न हो
बहुत लालच की बिसात पर यहां शकुनि खेल चुके
अबकि ध्यान रहे,अपने घर पैदा कोई माहिल न हो!
आल्हा मंदिर
बुन्देलखण्ड में शूरवीरों की सब यही गाथा सुनाते हैं
सावन आते ही घुमड़ – घुमड़ के मेध मृदंग बजाते हैं
ये मैहर वाली माँ शारदे पर सदियों पुरानी है आस्था-
कि आज भी आल्हा मंदिर में आकर सर झुकाते हैं!
तुमने ही
इसे शाप कहूं या वरदान, तुमने सबका संरक्षण किया
कभी राणी मछला का ज्वालासिंह द्वाराअपहरण किया
हे श्रीकृष्ण ! सच बताना क्या पांडव की भांति यहां
तुमने ही आल्हा उदल मलखान का था अवतरण किया ?
इतिहासकारों
इतिहासकारों ने हर हारे हुये योध्दा को गुमनामी दी
ऐसे जाकर सत्ताधीशों के दरबार में थी सलामी दी
कि सेना के बल जीतने वाले को महान बताया और
घास की रोटी खाने वाले महाराणा को बदनामी दी.
संविधान
कालचक्र ने ही युग -गाथा में था वेद – कुरान लिखा
राजा – महाराजाओं की युध्दप्रियता पर यशगान लिखा
अपने भारत में ऊच -नीच का भेदभाव न हो इसिलिये
आम्बेडकर ने भाईचारे की राजनीति का संविधान लिखा
भीमराव
भीमराव ने लोगों को असमानता का दुख झेलते देखा
गायकवाड़ के आंगन में बच्चों को कंचे खेलते देखा
फिर- लगे सोचने कि एक गोले में सब कितने सुंदर है
शायद, यहीं से नियति ने सामाजिक न्याय फैलते देखा.
अदा
नाज- नखरों की अदा साथ – अपने लाओ तो सही
सर झुकाये खड़ा रहूंगा अब — सितम ढ़ाओ तो सही
ये कहने के वास्ते कि मैं– तुम से नफरत करती हूं
किसी बहाने से पास मेरे –वापस आओ तो सही…
मेरी याद
मेरी याद सांस लेते हुये –आये तो आहें भरोगी
कभी अपनों में स्वयं को– अकेला पा कर डरोगी
वो खरीद कर दिये ड्रेसेस –जब भी पहनोगी तुम
मेरे हाथों की उष्णता –भीतर तक महसूस करोगी!
तुम पूजा हो!
कभी सोमवार का व्रत तो कभी तिजा करती हो
तुम पूजा हो! क्या इसीलिये इतनी पूजा करती हो
उपवास तुम्हारा और फलाहार है मुझे ही सब खाना
फिर, जलते पलों में भी भेद क्यों दूजा करती हो!
बड़ों की बातें
अपने बड़ों की बातें सुनना– भी अच्छी बात है
संस्कारी बातों पे ध्यान धरना– भी अच्छी बात है
दिल के किसी कोने में– कोई आवाज़ दबी होगी
उसे मगर क्या इग्नोर करना –भी अच्छी बात है?
धायल शेर
कितना दर्द था धायल शेर का दहाड़ के पीछे
जब देखा उसने भूख- प्यास को किवाड़ के पीछे
लेकर हुजूम चल पड़ा था वह तालाब की तरफ-
सदियों की पीड़ा, साजिश नहीं थी महाड़ के पीछे!
कण्ठस्थ
महू की मिट्टी संग उड़ कर स्मृतियां खो जाती है
पर एक खुश्बू आज भी दूर आंबडवी को जाती है
वहां कोई भीमा दरिया पार बस्ता लिये चुप बैठा-
कि किताबें छूते ही खुद,उसे कण्ठस्थ हो जाती है!
संघर्षों के बीच
उसे ऊंचे- ऊंचे रेतीले टीले पर बैठना खूब भाया था
कहानी है कि संघर्षों के बीच वो शांति प्रस्ताव लाया था
ये एक राजा की न्याय -प्रियता के ही संस्कार थे कि
वहां गडरिये के भेष में विक्रमादित्य का ही साया था!
समझाया
हाथ को समझाया दुआ-सलाम कर के अब सुधर जाये
पांव से कहा कि भटकता है कहां वापिस घर जाये
मैं इकतरफा इश्क़ में जीते –जी मर रहा हूं इधर
भगवान करे तुम्हारे भी अरमां कभी खुदकुशी कर जाये
हे बुध्द
हे बुध्द! जिस भिक्षु के नाम का मैंने सुहाग भरा है
उसी ने मेरे हृदय में जीवन के प्रति वैराग भरा है
मैं राज-नर्तकी रंग- महल की सब की पटरानी जैसी
बोली वैशाली की नगरवधू -प्रेम मेरा भी त्याग भरा है!
मित्रता के मीठे प्याले
मित्रता के मीठे प्याले में विष एक दिन मिलायेगा
क्या पता था शब्दों का यह पुजारी ऐसे छला जायेगा
जब जब उसका मासूम चेहराआंखों के आगे लहरायेगा
हाथ कागज की ओर बढ़ता, अपने- आप चला जायेगा.
लाचार रुपसी
हर कोई दावा कर रहा था जा –जाकर कोतवाली में
हर श्रीमंत रखैल बनाने आतुर था अपनी रखवाली में
एक लाचार रुपसी का जरा ये दुर्भाग्य तो देखिये-
पूरी वैशाली को वेश्या नजर आयी थी आम्रपाली में!
प्यार पर ज्ञान
प्यार पर ज्ञान बधारने वाले प्यार करके भी देखें
इस आग के दरिया में पहले उतरके भी देखें
दिल को मिले जब कहीं धोका या फरेब उन्हें-
कैसे मरते हैं जीते -जी, तिल -तिल मरके भी देखें.
झूठे वादे
मुझ से झूठे वादे करके वक़्त तूने मेरा बर्बाद किया
जाने कितने बहानों से तौहफें लेकर घर आबाद किया
अपनी नाकामियों पर तो सब बेवफा को याद है करते
मैंने मगर इतनी बुलंदियों पर भी तुझे है याद किया!
मगध सिंहासन
बावजूद इसके कि राज्य में विद्रोह करना मना था
मगध के सिंहासन पर छाया, मगर कोहरा घना था
पुष्यमित्र ने ऐसे वध किया बृहद्रथ का कि वह –
इतिहास का पहला सेनापति था जो सम्राट बना था.
बिन्दुसार
बिन्दुसार के भीतर दुविधा का एक द्वंद मचा था
बस, दिल में अंतिम अरमान उसके शेष बचा था
कि प्रिय पुत्र सुशीम को कैसे सम्राट धोषित करें
पर, अशोक ने तो कलिंग जीत इतिहास रचा था!
दिखाई नहीं देते
दिखाई नहीं देते आजकल लगता है रब -से हो गये हो
ये शहर भी अजनबी हुआ है बेवफा जब से हो गये हो
नाजुक लबों से बड़ी कमसिन बातें किया करते थे तब
सच बताना जरा इतने कठोर आप कब से हो गये हो?
हवा का रूख़
जब से खतरा पाटलिपुत्र पर पग – पग हो गया
हवा का रूख़ तक गुप्तचरी का सजग हो गया
किसी अजनबी ने राजधानी में प्रवेश क्या किया
उधर , नगरपाल का शिश, धड़ से अलग हो गया.
तलवार से भी तीक्ष्ण
तलवार से भी तीक्ष्ण स्वर तब पलकें मूंदते थे
लहरों के पांव स्वयं नूपुर की झंकार ढूंढते थे
दूर-दूर तक अट्टालिकाऐं रौशनी में जगमगा उठतीं
समुद्रगुप्त की वीणा के तार परिसर में गूंजते थे
श्रीकांत वर्मा
वर्तमान की दुर्दशा देख कर ये फैसला लिया होगा
एक सिपाही की तरह दिल अपना जख्मी किया होगा
श्रीकांत वर्मा ने घोड़ों पे पताकाऐं सपनों में देखी होगीं-
तब जाकर, अतीत का वैभव कविता में जिया होगा!
राजन
राजन! राज्य में भवनऔर मार्ग आलिशान होना चाहिये
मदिरालय के खुलने पर भी नहीं व्यवधान होना चाहिये
आचार्य बोले-अपनी प्रजा को रखो ऐसे अनुशासित कि
सभा में नर्तकी या गणिका सबका सम्मान होना चाहिये.
महारानी
मगध की राजगद्दी के साथ फिर मनमानी हो गयी
सारे जनपदों के सपनों की चाह राजधानी हो गयी
भारत के प्रथम राजा की राजाज्ञा कि – जिसके तहत
यहां, बदनाम वेश्या देवयामिणी भी महारानी हो गयी!
अतीत
अतीत ने कब प्रश्नों का कोई उत्तर सरल दिया
पानीपत का तीसरा पृष्ठ भी युध्द में बदल दिया
अब्दाली ने तूफान की तरह सोना- चांदी सब लूटा
पर जाते- जाते मराठा क्षत्रपों का सपना कुचल दिया!
जरासंध
जरासंध की तरह सबसे क्रूर राजा कभी नहीं हुआ
दुनिया में उससे बड़ा कोई तांत्रिक अभी नहीं हुआ
उसे मारने का दावा करते सौ सम्राट रहे मगर
श्रीकृष्ण के अलावा सफल तब एक भी नहीं हुआ.
फरियाद
भरे- दरबार में मातृश्री ने यही एक मुराद रखी थी
धर्म की खतिर कांपते हाथों से फरियाद रखी थी
तब जाने कितने अफजलों का सिर काट शिवाजी ने
पहले-पहल हिन्दवी स्वराज्य की यहां बुनियाद रखी थी
ऐसा संदेश
कुतुबुद्दीन ऐबक ने हुक्म- तामीली में ऐसा संदेश दिया
कि गोरी के पश्चात लोगों ने उसे भारत का प्रदेश दिया
उसी का बंधन -कारक प्रशासन रहा फिर जारी यहां-
आखिर गुलाम ने गुलाम बनाने का ही था आदेश दिया!
मेरे पूर्वज
मुझे मेरे पूर्वजों से इतना– प्यार है कि क्या कहे
वर्षों से बेचारे गुलामी की– जंजीरों में जकड़े रहे
किन्तु आज की भोली -भाली –पीढ़ी के भी दिल में
आत्म- सम्मान की नहीं –लालच की ही नाव बहे.
तराईन का मैदान
तराईन का मैदान , हवा में विष ऐसे मिला गया
जयचंद के हाथों वक्त भी वक्त जैसे छला गया
इतिहास के पहले धात का यही था पहला जवाब
कि जो उठा बाण गोरी पर तो उठता चला गया…
दक्षिणी तटों के जंगलों में
दक्षिणी तटों के जंगलों में मूलवासी छप्पर बनाते थे
जल -देवता को नृत्य के दौरान मृत्यु- राग सुनाते थे
वास्को डी गामा ने तो बहुत बाद में भारत को खोजा-
सबसे पहले समुद्री डाकू यहां अस्मतें लूटने आते थे!
राजभवन
दूर–गिध्दकूट के शिखर पर–अंधेरा बड़ा छा रहा है
कोई महानगर के सूने रास्ते –शोक -गीत गा रहा है
अजातशत्रु खड़ा खिड़की से बाहर–देखने लगा कि-
कालकोठी से पिता का प्रेत–राजभवन तक आ रहा है!
शीश महल
शीश महल के निर्झर में सोने–चांदी-सी कृतियां देखीं
जलकुण्ड से जिन्दा निकली खुजराहो-सी मूर्तियां देखीं
कभी पानी पर तैरते राजहंस संग अठखेलियां करतींं
बूढ़े राजा के हाथों फिसलती मछली-सी परियां देखीं!
बूढ़ी दादी
बूढ़ी दादी झुर्रियों में छिपा– किस्से पुराने लाती थी
रंगमहल के परकोटे पे सुबह –एक चिड़िया गाती थी
गाती थी कि रात के सन्नाटे में– दबी सिसकियां और
दिन के उजाले में वहां –चूड़ियों की आवाजें आती थी!
सुनाई देती है
दूर राजमहल से घोड़ों की– टाप सुनाई देती है
जंजीरों में बंधे राणा की –पदचाप सुनाई देती है
आज भी अतीत की गली –कोई झांक कर देखें
यहां सती हुयी विरांगना की –छाप सुनाई देती है!
चाहिये
यह परम्परागत दंभ का द्वार किले से ढ़हना चाहिये
बिम्बिसार का,पुत्र के हाथों रक्त नहीं था बहना चाहिये
राजन! जो पिता का वध करके सिहांसन पर हो बैठा-
उसे फिर अपनी संतान से भी सावधान रहना चाहिये!
खोजते थे
ध्यान की अवस्था में शांति –ब्रम्ह की ओर खोजते थे
आत्मा से जुड़ी सांसों की –कोई अनंत डोर खोजते थे
प्राचीन -काल में छात्र सुदूर–नालंदा की पीठ आकर
वेधशाला के खुले कक्ष से–आकाश का छोर खोजते थे.
कलिंग का मैदान
वह कलिंग का मैदान सिरकटे धड़ों से था भर गया
युध्दरत सम्राट भी देख कर शवों का अंबार डर गया
आत्मग्लानि का ऐसा वैराग जागा अंतस में उसके कि
एक प्रज्ञान उठा,और सारा भारतवर्ष रौशन कर गया!
पुरूषार्थ
पुरूषार्थ इस आर्यावर्त का — वहीं कहीं खो जाता
आक्रांता अश्वो की पीठ पर –सारा सोना ढ़ो जाता
यदि तीरों की दीवारें खड़ी –नहीं की गयी होतीं —
तो झेलम में ही पुरूवंश — का सर्वनाश हो जाता!
गुप्तकाल
गुप्तकाल में शमशीर के दम — आदेशों का दौर चला
क्या मजाल कि प्रजा का– संयम जरा भी हो हिला
आम्रपाली को एक द्वारपाल ने– भूल से क्या देखा
आमात्य के हाथो चौराहे पे- उसका था फिर शीश मिला
चलन
दुनिया के पहले दीवाने का यह पहला कथन था
जुदाई की हर स्थिति पर उसका अपना चिंतन था
प्रेयसी की जगह पत्थर को ही मूर्ति बना के पूजना
शायद वहीं से आरम्भ हुआ आस्था का चलन था..
तुम्हारी याद
अंजान रास्तों पर चलते- चलते ऐसा मोड़ भीआता है
दिल अनायास ही एकांत पा, नग्में पुराने गुनगुनाता है
वैसे तो जिन्दगी जमाने के साथ बीत रही है मगर
तुम्हारी याद आती है कुछ पल को वक्त ठहर जाता है.
आंखों की जुबां
आंखों की जुबां से बोला — कुछ जा नहीं सकता
चुप के अधरों पर गीत –कोई आ नहीं सकता
मेरे मित्र यदि तूने किसी से –दिल लगाया होता
तो तू भी प्रश्न पूछ कर — उत्तर पा नहीं सकता!
कठिन रास्तों
जिसने कठिन रास्तों पे चल मेरा हाथ था थामा
जिसने दुप्पटे से हंसते हुये मेरा हर आंसू पोंछा
आज उससे जुदा होकर किस हाल में जी रहा हूं
उसने कभी फुरसत में भी मेरे बारे में है सोचा.?
तुम को ढूंढते हुये
न कोई मोबाईल न खत –न संवाहक ही मिला मुझे
तुम्हारे गांव पहुंचने का रास्ता– भी नहीं दिखा मुझे
कि तुम को ढूंढते हुये घर — अपना भूल जाता हूं-
आईना तक याद रखने की–तमीज गया सिखा मुझे!
आंखों की जुबां
आप यदि आंखों की जुबां से सब समझ लिया करते
हम भी फिर गैर तरीके से क्योंकर जवाब दिया करते
दिल की आवाज दिल में ही घुट- घुट कर मर जाये
इस तरह तो किसी का नंबर ब्लॉक नहीं किया करते!
तेरी आँखें
तेरी आँखें तेरे होठों पर– नजरें गड़ जाती है
जैसे चंद्र- कमल के ऊपर– छाया पड़ जाती है
कितने रंग भरता हूं मैं– मन के केनवास में –
पर एक चेहरे के आगे–हर तस्वीर बिगड़ जाती है…
जैसे– तुम
जैसे– तुम ने मुझे चाहा समझा और पसंद किया कभी
क्या कोई मुझे चाहेगा समझेगा और पसंद करेगा अभी
अफसोस ये नहीं कि तुम — मेरी जिंदगी में नहीं हो
अफसोस ये है कि इसी रंज रहे में– जी रहे हैं सभी!
ये जुदाई
ये जुदाई का वक्त कितना जुल्म मुझ पर ढ़ायेगा
उल्फत की आस लेकर कितने गीत ग़म के गायेगा
माना कि तुम खुदा नहीं हो पर लगता है जैसे –
तुम से मिलने के बाद सब -कुछ ठीक हो जायेगा!
रात के आंचल
रात के आंचल में चमक उठी–कोई चंद्रकला हो तुम
नदी में नहायी हुयी देह जैसी –एक चन्चला हो तुम
जो किसी ऋषि के आश्रम की–अछूती वनकन्या-सी है
सहसा, मेरे मन को भा गयी– वही शकुन्तला हो तुम.
राहगीर
राहगीर को मंजिल की आरजू में चलने की चाह है
हरेक कली को जैसे फूल बनके खिलने की चाह है
ये पूछने के लिये कि अब मिलना क्यों छोड़ दिया
बस, आखरी बार ही सही उनसे मिलने की चाह है!
देखते हैं
रुप कातिल है मगर प्यार — करके ही देखते हैं
एक इंतजार में ठंडी आहें –भरके ही देखते हैं
वैसे भी तो लोग हैं कि यहां – मर मरकर जी रहें
हम उसकी जुस्तजू में आज –मरके ही देखते हैं
फिर जरा
इस कायनात की बयार को– फिर जरा हिला दे
गमे– दिल से निजात पाने– जहर कोई पिला दे
उसे ही खुदा मान करके –मैं सज़दे किया करूं
बस, एक बार मेरे महबूब से– जो मुझे मिला दे…
साथ तुम्हारे
हम चौपाटी पर गोलगप्पे — खाते थे साथ तुम्हारे
ढ़लते साये में मोती जैसे– चमकते थे दांत तुम्हारे
कभी देर शाम तक यूं ही — टहलते हुये बतियाते थे
फिर लौटते वक्त मांगना– चाहता था मैं हाथ तुम्हारे
चलते – चलते
चलते – चलते रास्ते में वही– डगर आ जाये तो
बिछड़ा प्यार फिर किसी मोड़ -नज़र आ जाये तो
मै मंदिर -मंदिर दीप बालू द्वारे -द्वारे दीया जला दूं
यार मेरा एक बार वापस मेरे शहर आ जाये तो!
बिंद्राबन में
बिंद्राबन में तो जल चढ़ाया -पर आंगन रूंआसा रहा
तुम्हें पूजा करते देख मुंह –घडे़ का खुला-सा रहा
प्रेम की यह कैसी तुम्हारी — सूर्य -साधना है प्रिय!
कि देहरी पे खड़ा एक परिंदा–प्यासा था प्यासा रहा..
गम
गम अकेलेपन का मिला है –किस सजा के बदले
कोई खुशी भी नहीं कबूल – एक वफा के बदले
उसने जीवन- भर के लिये- अलविदा कह दिया मुझे
अच्छा होता जहर ही दिया होता–इस दुआ के बदले!
सभ्यता
पेड़ों की छालों से अनुष्ठान, पहले कामना का हुआ
फिर भीतर जलती काया पे उपचार साधना का हुआ
जिस दिन सभ्यता ने वस्त्र, इस आग को पहनाया
उसी दिन से दुनिया में — जन्म वासना का हुआ.
दोस्ती चाहता है
दोस्ती चाहता है तो दोस्ती का दम भरता क्यों नहीं
जा उसके सामने प्रेम का इजहार करता क्यों नहीं
उसके बगैर कहता है कि मर जाऊंगा मर जाऊंगा
आखिर एक बार ही सही — तू मरता क्यों नहीं?
तेरी छाया
तेरी छाया – सी तैरती है– देह के चिन्तन में
खुली जुल्फों की खुश्बू फिर- उभरती है जेहन में
सर्द रात पास बैठ कर–तू अंगड़ाती है ऐसे
चांद आ ढ़ला हो जैसे — सोने के बदन में!
मासूम बेचैनियां
उसकी मासूम बेचैनियां, दीवानेपन को तरसती भी है
पास आता देख के मुझे दुप्पटा छाती से कसती भी है
हिरणी – सी चपलता है और हवा -सा चातुर्य है उसमें –
कि मैं जो कहूं कुछ तो वह उतावलेपन पे हंसती भी है.
क्या पता
क्या पता था इतनी ऊंचाई से विश्वास हिलायेगा हमें
वक्त यों जुदाई का जहर किसी दिन पिलायेगा हमें
इस व्यस्ततम दुनिया के झमेलों में ऐसे बिछड़े कि
अब तो कोई संयोग ही – होगा जो मिलायेगा हमें..
मेरी तरह
मेरी तरह फूल -से चेहरे को — मधुर मुसकान देगा
हर अजनबी मोड़ पर भी —एक नयी पहचान देगा
तुम्हारी मुहब्बत में खुद बर्बाद हुआ — मैं कि अब –
कौन तुम्हारी फरमाईशों को पंख सपनों को उडा़न देगा.
कभी स्वयं
कभी स्वयं से एकांत में –सम्वाद तो करती होगी
कभी मंदिर की सीढ़ियों पे फरियाद तो करती होगी
मेरे अहसानों की फेहरिस्त —बहुत लम्बी है कि तुम
कभी भूल से ही सही —मेरी याद तो करती होगी!
सब–एक बराबर होता है!
आंसू का कतरा तक बहे –तो समंदर होता है
टूटे हुये दिल का सनम– भी सिकंदर होता है
तू मेरे कद को अपनी– दौलत से मत तौल –
प्यार में छोटा- बड़ा सब–एक बराबर होता है!
हम जब मिले
हम जब मिले अकेले में — प्यार जताने नहीं दिया
सलीके से सजे सामान को –हाथ लगाने नहीं दिया
मैं नाजो-नखरे उठाने के –बहाने सदा ढूंढता रहा
उसने कभी गिरता हुआ भी आंचल उठाने नहीं दिया.
किसी दिन
किसी दिन चिंताएं छोड़ सारी आराम से सोया होता
भूल अपना–पराया हर गम दूर कहीं खोया होता
लेकिन तुम ने वह अवसर ही, नहीं दिया मुझे कि –
कभी तुम्हारे दुपट्टे में मुहं छुपा करके रोया होता…
कभी नदिया
कभी नदिया -सी तो कभी हवा -सी बलखाती रही
चाह उसकी गर्मी के दिनों में भी बरसाती रही
मैंने चांदी के सिक्कों से उसको तौल दिया था-
वह मुझे मात्र- एक चुम्बन के लिये तरसाती रही
काश!
काश! प्यार के घड़े में —छिपा कोई छेद होता
चेहरे के बदलते पानी का —कुछ तो भेद होता
मैं हर तरह की गुस्ताखी– माफ कर देता उसकी
उसे यदि अपने किये पर –जरा भी खेद होता!
प्रतिबिंब
आंगन के बिरवे पर है फैला सांझ का प्रतिबिंब
कांसे की थाली में हो जैसे चांद का प्रतिबिंब
ठंडी-ठंडी आंच देह के भीतर अनुभूत-सी होती
इसे ही कहते हैं — प्यार की आग का प्रतिबिंब!
आज शहर में
एक बादल दूर आसमां पर — घना घूम रहा है
एक पागल गली – गली खून –सना घूम रहा है
उस शोख लड़की से जो शख्स मिलने आता था
आज शहर में वो फकीर — बना घूम रहा है!
जमाना भी
अब तो शायद जमाना भी — वह कहानी भूल गया
मेरे बचपन पर से जिसकी — परछाई का शूल गया
किसी चमन में दो गुलाब अभी खिले ही थे प्यार के
कि, तभी एक ने जहर गटका एक फांसी झूल गया!
बेबसी की कहानी
देखने वालों की आंखें वहां — आश्चर्य से गड़ी थी
भीड़ चुपचाप हाथ बांध कर — किनारे पर खड़ी थी
किसी को बेबसी की कहानी- सुन यकीन नहीं हुआ
कि गांव के तालाब में दो लाशें – लावारिस पड़ी थी!
नहीं देखता
गुजरता हूं उस गली से — -गर्दन उठाकर नहीं देखता
इतना शर्मिंदा हूं मैं कि—- सर उठाकर नहीं देखता
जब से दिल टूटा है मेरा —- दोस्ती के झूठे भरम में
अब किसी लड़की की तरफ आंख उठाकर नहीं देखता.
फूल कहीं भी
फूल कहीं भी खिलते रहे — खुश्बू चाहों में है
दूर भले हो मंजिल लेकिन —पड़ती राहों में है
दूधिये चांद को छत पर देख— लगता है जैसे-
उसके कसे हुये बदन का —साया निगाहों में है!
दुनिया में
दुनिया में इश्क करने का कोई कायदा नहीं होता
उल्फत में यकीन रखने से कोई फायदा नहीं होता
दिल तोड़ने वालों की सलाह, मत माना कर दोस्त!
किसी को कहा हुआ वचन कोई वायदा नहीं होता.
मैं कैसे मान लूं
कि वह मुझे चाहती नहीं —- मैं कैसे मान लूं
उसके दिल में क्या है —पहले यह जान लूं
उसने यदि ठुकरा दिया तो -ठोकर मार दिल को
मैं भी कुछ करने की — जिद आखिर ठान लूं!
क्या इस तरह
क्या सूखती शाख से फूल –झरने के बादआओगी
क्या इस तरह एक उम्र –गुजरने के बाद आओगी
दिल ने तुम्हें आवाज दी है आज,बड़ी दूर से सनम!
क्या मेरे तड़प -तड़प कर –मरने के बाद आओगी?
उसने
कभी फोन ना करने का — वादा लिया था उसने
हाथ में कसमों का एक — पुलिंदा दिया था उसने
चाहता तो जा उसके गांव दुध- डेअरी खोल लेता-
परंतु ,घर वालों के डर से –मना किया था उसने..
भूला पथिक
कोई भूला पथिक कभी ना तृप्ति से वंचित रहे
इस दरिया में निर्मल जल सदियों तक संचित रहे
चाहे कैसा भी भला – बुरा समय यहां आये -जाये
मेरे भारत के पटल पर, लोकतंत्र सदा मंचित रहे!
वे लोग
वे लोग अपने वक्तव्य को –थू करके चाट लेंगे
रुप -रंग के आधार पर — सब कुछ बांट लेंगे
उनका बस चले तो देखना- किसी दिन धोके से
वे, देश की देह का एक — एक अंग काट लेंगे…
किसी को दगा दे
कहीं घोषणाओं की चमक न — किसी को दगा दे
भटके हुये नौजवानों में न — कोई लालच जगा दे
कभी एक लाख कभी नौकरी की ये थोथी सच्चाई,
कल मां–बहनों की इज्ज़त न — दांव पर लगा दे…
मूर्ख
टकसाल के सांचे में सारे — सिक्के समान ढ़ले हो
हरेक के मुद्दों की सुरत– अलग –अलग भले हो
कैसा होगा उस देश का– हाल – चाल मत पूछो
जहां सब मूर्ख एकसाथ– महान बनने चले हो!
अन्याय के सामने
अन्याय के सामने लड़ते हुये — जरा तनकर तो देखों
गंदले पानी में बहती रेत —-जैसे छनकर तो देखों
कुछ लोग हमें नौकरी देकर– गुलाम बनाना चाहते हैं
कभी स्वाभिमान के साथ मालिक खुद बनकर तो देखों
जिसकी चाहत
जिसकी चाहत थी आजतक वही चाहकर नहीं आयी
आंसू के साथ आयी खुशी कभी खुलकर नहीं आयी
मेरे प्यार का हश्र क्या हुआ — मत पूछ दोस्त मेरे!
जो चली गयी जिन्दगी से फिर लौटकर नहीं आयी .
ये जिन्दगी
ये जिन्दगी नज़रें मिलाते ही नवाबी लगती है मुझे
आजकल तो चाल भी अपनी शराबी लगती है मुझे
कभी भूल से महसूस की थी उनके गालों की गर्मी
अब समझा क्यों सारी दुनिया गुलाबी लगती है मुझे.
जज्बाती
लाख जज्बाती हो जाये दिल पर ज्यादती नहीं करुंगा
विश्वास भी जताना चाहे तो जबरदस्ती नहीं करुंगा
दोस्ती के रास्ते चलकर ऐसे धोका खा चुका हूं मैं कि-
अब कभी किसी लड़की से कोई दोस्ती नहीं करुंगा…
जिसने कभी
पहले दृष्टि- जाल बिछा कर मेरी चाहत छली गयी
फिर धूल जान — बूझ कर आंखों में मली गयी
जिसने कभी जीने–मरने की कसमें खायी थी वह
एक दिन मेरे सामने से ,मुंह फेर कर चली गयी…
तुम भी
तुम भी सीता की तरह इतिहास दोहरा सकती थी
सारी दुनिया को कथा त्याग की बतला सकती थी
मुझे यदि सचमुच अपना राम,मान लिया था तुमने
तो मां– बाप का घर छोड़ कर भी आ सकती थी.
मूर्खतंत्र
ईसा- पूर्व तो सबसे ऊपर — मनु ही सरमाया था
फिर राजतंत्र के दौर में — रक्त सबका गरमाया था
आखिरकार लोगों ने त्रस्त हो कर निर्णय एक लिया
लोकतंत्र की नींव रखी और ये मूर्खतंत्र अपनाया था!
बदनाम
बदनाम होने के लिये जैसे नाम ही काफी है
पीकर बहकने तेरी आंखों का जाम ही काफी है
नयी रौशनी के खिलाफ खड़े अंधेरों से लड़ने को
अपने भीतर का जागा हुआ राम ही काफी
वो कहते थे
वो कहते थे एक न एक दिन गरीबी हटा दी जायेगी
समाज की हर सर उठाती आशंका दबा दी जायेगी
पर उन्हें क्या पता था यह खाई इतनी चौड़ी होगी
कि लोगों के हाथों उनकी ही –सत्ता ढ़हा दी जायेगी…
जुबां
जिनकी जुबां पर दूसरों के लिये मीठे उद्गार नहीं है
कैसे ना माने —ऐसे कलुषित मन बीमार नहीं है
ये लोग केवल और केवल , है यहाँ प्रतिक्रियावादी
इनके पास कभी भी अपने मौलिक विचार नहीं है!
अपने फायदे
अपने फायदे के लिये ध्यान लगा कर बैठे हैं
लोग आपकी दीवार से कान लगा कर बैठे हैं
जिन्हें देश की अस्मिता का दर्द मालूम नहीं वे
नयी – नयी गारंटी की दुकान लगा कर बैठे हैं!
शीशे की परछायी
शीशे की परछायी कांच नहीं होती
अंतर्बिम्ब की कभी जांच नहीं होती
प्रेम सुलगते हुये अरमानों की चिता है
इस आत्मदहन में आंच नहीं होती!
जिंदगी
जिंदगी उसकी खट्टी ना मीठी, ना कोई नमकीन है
आदमी है वह फुटपाथ का, नाम उसका रामदीन है
सब लोग उसके आस–पास मना रहे थे धूलि–वंदन
जबकि दिल उसका उदास है और दुनिया रंगहीन है!
सांझ की खिड़की
सांझ की खिड़की से झांकता–पूर्ण चंद्रमा हो तुम
प्राचीर के शून्य में खोयी — पाषाणी प्रतिमा हो तुम
भूल से होंठो की कलियां– छू ली तो आभास हुआ
पहली बार लजाते हुये गालों की लालिमा हो तुम!
चुनावी मौसम
इस चुनावी मौसम पर सब प्रेमी बहाने से मिले
बागों की डालियों संग फूल, जुल्फों में भी खिले
जो जड़ें हमारी बता रहे कि आज खतरे में है-
उन्ही के धड़कते दिलों की ज़मीनें, पैरों तले हिले!
कर्तव्य – पथ
चलकर सदा कर्तव्य – पथ पर दीप प्यार के जलायेंगे
जो दिशाहीन अधियाला होगा उसे राह नयी दिखायेंगे
कोई लाख प्रलोभन दे अथवा करे भयभीत किसीको
हम लोकतंत्र के है वाहक -हम फर्ज अपना निभायेंगे!
हम किसी मोड़ पे
हम किसी मोड़ पे मिलेंगे — ये दिल का वास्ता था
मकसद था अलग हमारा –मगर एक ही रास्ता था
तुम्हें मंजिल मिल जायेगी तो –तुम भी चले जाओगे
मैं कहीं दूर निकल जाऊंगा –मुझे पक्का पता था!
चांद की रौशनी
चांद की रौशनी में अंधेरे– का जहर घुला था
शायद रात की नथ का — कोई पेंच खुला था
सब रिश्तों के सूत्रों को –आपस में जोड़ते रहे
अततः अर्थी के तराजू पर– प्रेम ही तुला था!
ढ़लती शाम
ढ़लती शाम में काली घटायें– कभी संग ली मैंने
प्रेम करने की आज़ादी को समझा था जंगली मैंने
कांच के जाम-सा दिल उसका, देख पछता रहा हूं
कि क्यों चमकती नोंक के ऊपर रख दी उंगली मैंने!
खिले गुलाब -सी लगती हो
भींगे हुये वस्त्रों पर लिपटी शराब –सी लगती हो
प्रणय के प्रत्येक इशारे का जवाब–सी लगती हो
होली का हुड़दंग था, तुम्हें छिप-छिप के देख लिया
तपती धूप में भी खिले- खिले गुलाब -सी लगती हो!
जीवन की तेज धूप में
जीवन की तेज धूप में लहू अपना कढ़ाया मैंने
आंखों में बसी तस्वीर को भीतर ही मढ़ाया मैंने
पीपल के हरे पत्तों पे नाम लिख -लिख के तुम्हारा
कभी आंसुओं के संग था, शिवालय में चढ़ाया मैंने!
कोई सपना
फिर आंख से ओझल हुये – तुम अधिमास की तरह
मधुमास ले कर आये भी हो तो खरमास की तरह
इसके पहले कि कोई सपना जन्म पाये पृथ्वी पर
दिल की कुवांरी ममता तड़प उठी अट्टमास की तरह!
मां तुम्हारा
मां तुम्हारा रूलाना मैं भूला नहीं
मां तुम्हारा हंसाना मैं भूला नहीं
दूध में शक्कर संग रोटी भिंगोना
मां तुम्हारा खिलाना मैं भूला नहीं.
मां मैंने
मां मेरा रूदन कब सुन पाती
मां मैंने पुकारा दौड़ी चली आती
मैं एक चाकलेट की जिद करता
तुम आंचल में सब छिपा लाती .
मां तुम
मां तुम निश्छ्ल – निर्मल सरिता हो
मां तुम सौम्य – स्वरूप वनिता हो
तुलसी दास की रामायण – सी तुम
तुम्हीं जयशंकर प्रसाद की कविता हो
अपना दिल
प्यार भी किया मुझको तो मिलने पे परहेज रखा
मैंने अपना दिल, हल्दी वाले दिन तक सहेज रखा
इतने उपहारों के बीच कोई देख ही नहीं पाया-
किसीने चुपके से द्वार पर आंसुओं का दहेज रखा
मेरे आराध्य प्रभु
जहां सांसें खुद रचे अपना स्वयंम्बर
ओढ़ बैठूं मैं तटस्थ हो पिताम्बर
तेरी साधना में तन्लीन रहूं सदा
मेरे आराध्य प्रभु! मेरे दत्त -दिगम्बर!
नहीं सकता
क्या एकांत – प्रिय रो नहीं सकता
गहराईयों में जा खो नहीं सकता
जो अभागा होता नहीं कभी अपना
वो ईश्वर का भी हो नहीं सकता!
नहीं चाहिए
मुझे भूखे -पेट भक्ति नहीं चाहिए
कोई अहम-भरी शक्ति नहीं चाहिए
आत्मा की ऊंचाईयां तो जानूं मैं
मरने के बाद मुक्ति नहीं चाहिए!
हुक्मरान
जब आटा – दाल पर सवाल हुआ
किसी हुक्मरान को नहीं मलाल हुआ
जिसने कुर्सी पे बैठ कसमें खायीं
उसी के हाथों देश कंगाल हुआ!
शत्रुता में
शत्रुता में कहीं संवाद होता है
प्रलाप में कहीं प्रसाद होता है
जिनकी जुबान पर जेहाद होता है
मुल्क उन्हीं का बर्बाद होता है!
बातें
मजहब की बातें तो बेहद करे
अलगाव का काम एक अदद करे
जो कर्ज के रसातल में धंसा हो
कौन उस मुल्क की मदद करे!
ईश्वर की अनुकम्पा
ईश्वर की अनुकम्पा से जीव हुये
साधना से भी पत्थर सजीव हुये
भोले भी पहले केवल महेश थे
फिर शंकर बने अंततः शिव हुये!
बोझ
दिल पर पड़ा बोझ उतार लेते
दुआ ले कर जीवन संवार लेते
मैं फकीर गली से गुजरा था
तुम द्वार खड़े थे , पुकार लेते.
ये बताना
ये बताना सचमुच मुश्किल होता है
कि अंदाज उसका कातिल होता है
जमाना ही पत्थर -दिल नहीं होता
सनम भी तो पत्थर -दिल होता है!
प्यार में
प्यार में इतने बावले हो गये
मीठे बेर थे आंवले हो गये
अमराई की भी ऐसी छांव पड़ी
कि हम तनिक सांवले हो गये
ये सिला
ये सिला कभी चला भी नहीं
ख्याल था पर , उड़ा भी नहीं
उसने रूक कर हंसा भी नहीं
मैंने मुड़ कर देखा भी नहीं !
जाने किधर गयी
अभी थी सुगंध जाने किधर गयी
हवा चली तो शायद सिहर गयी
ओस की बूंदें भी इतनी पड़ी कि
गुलाब की पांख-पांख बिखर गयी!
इतिहास के रक्त
इतिहास के रक्त -रंजित दौर देखोगे
कि मरती आस्था के गण-गौर देखोगे
दूर आकाश की अदृश्य आंखों से
अरे अनंत ! कितने अंत और देखोगे?
भाग्य कूट गये
कर्म तले सब भाग्य कूट गये
मेहनत के हाथों मिथक टूट गये
उसने जब कातर हो बोला -विठ्ठल!
पत्थर में भी प्राण फूट गये .
हादसों का हल
हादसों का हल कहीं सूझता नहीं
अंधेरों की पहेली कोई बूझता नहीं
दिल भी ऐसे में मुकर जाता है
मैं क्यों परेशान हूं — पूछता नहीं
आख़री सफर
किसी तरह की यंत्रणा काबिल नहीं
माया का मिलना कोई हासिल नहीं
मौत ही जीवन का आख़री सफर
इस रास्ते की दूसरी मंजिल नहीं !
हाथ धोकर
हाथ धोकर मेरे पीछे पड़े थे
मेरे नाम पर परस्पर लड़े थे
आज यही लोग मेरी अंत्येष्टि में
दूर हाथ बांधे चुपचाप खड़े थे !
अपने अलावा
अपने अलावा अपनी खैर कौन करे
अपशगुनी रातों में सैर कौन करे
लेकर प्रभु का नाम लेटे रहिये
मगर दक्षिण की तरफ पैर कौन करे !
चाहत
पता नहीं चाहत से किन लोगों को चंद्रहार मिले
उदासियों में तो तन्हाई के ही सब उपहार मिले
मेरी कविताओं को यदि तुम्हारा थोडा़- सा प्यार मिले
तब मैं क्योंकर चाहूं कि मुझे कोई पुरस्कार मिले!
चला जाऊंगा
जिंदगी मिली है तो किस्मत संवार कर चला जाऊंगा
आईना जिसे चाहे प्यार से, निहार कर चला जाऊंगा
फिर ना कहना कि मैंने — आवाज नहीं दी आकर
तुम्हारी गली तुम्हें कुछ देर पुकार कर चला जाऊंगा!
आस मिलन की
होश में रहते न संभली मदहोशी में क्या संभलेगी
आस मिलन की प्राणों के साथ ही क्या निकलेगी
तुम ने कहा राहें बदलो, मंजिल भी जायेगी बदल
किंतु तुम्हारी आदत हो गयी,ये अब क्या बदलेगी.
रामटोली
मुखड़े पे सोने की नथ जैसी
उद्यान में फूलों के पथ जैसी
रामटोली दूर से झिलमिलाती है
अश्वमेध के पास आते रथ जैसी.
राम रसायन
सूर्य- नमस्कार करूं कि उत्तरायण हुआ
जैसे मेरे अनुष्ठान का पारायण हुआ
जीवन सारा लगा स्वाद – भरा मिष्ठान
हृदय का स्पंदन राम– रसायन हुआ!
राम
राम ! तुम्हारा नाम लेना छोड़ा नहीं
राम ! तुम्हारे लिये मुंह मोड़ा नहीं
तुम ने प्रस्तर जोड़ सेतु बनाया —
पर टूटा दिल कभी जोड़ा नहीं .
राम कहानी
आवारा बादल - सी मेरी कहानी है
प्यासे दरिया – सी प्रेम – कहानी है
तेरी –मेरी इसकी और उसकी भी
सबकी एक – सी राम – कहानी है!
राम-रोग
आग में सृजन ना सुलग जाये
चाहत में अलख ना जग जाये
प्रेम– रोग में तपते हुये कहीं
मुझे राम — रोग ना लग जाये!
आकर तुम
आस की मुंडेर पर बांधा तोरण
रंगोली के ऊपर लिखा स्नेह-वंदन
आकर तुम एक दीप जला दो
महक उठेगा ये सूना-सा बिंद्राबन .
आज
आज हथेली पर जान उठानी होगी
ज्योति आस्था की ऐसे जलानी होगी
अब तो बेटियों की आबरू की तरह
मन्दिरों की पावनता बचानी होगी !
तेरे चरणों में
तेरे चरणों में रखूं प्राण — अपान
नाम- स्मरण ही मेरा विधी – विधान
जीवन का अन्य कोई लक्ष्य नहीं
तेरे सिवाय एक मेरे कृपा -निदान!
राम -दरबार
आदमी का दर्द दर्जेदार हो जाये
धर्म सभी का मिलनसार हो जाये
मेरे भारत की संसद भी अब –
चलें ऐसे कि राम -दरबार हो जाये
नियमबद्ध
सोम को जल शनि को सिन्दूर
हो नियमबद्ध जीवन के दस्तूर
हम तो फिर एक इन्सान हैं
लापरवाही चिंटी को भी नामंजूर!
महामिलन
दोनों को महामिलन की लत है
जीवन–मृत्यु आलिंगन में रत है
रूह कांप जाती है कहीं सुनकर
ये सच्चाई कि –रामनाम सत है!
रामपद
अयोध्या की गलियों से राजपद मिलें
दिल्ली की गलियों से जनपद मिलें
मैं जो भटक रहा हूँ जंगल — जंगल
हे ईश्वर ! मुझे मेरा रामपद मिलें.
साथ चलते हैं
साथ चलते हैं रास्ते समरूप में
विचार ढ़लते हैं उसी अनुरूप में
सारे बह्माड़ की कृति दिखी मुझे
बस! एक पत्थर के रामरूप में…
किसी बेटे ने
किसी बेटे ने वृध्दजन त्याग दिया
किसी बेटे ने आंगन विभाज्य किया
हिस्सा बांट कर फिर अपना -अपना
सब ने समझ कि – रामराज्य लिया!
नहीं सकता
मूरख कभी मोती बिन नहीं सकता
सूर्य- किरण कोई गिन नहीं सकता
मुझे चोर-उचक्कों से घबरना कैसा
जग,मेरा रामधन छिन नहीं सकता!
शिकायत
मौसम से शिकायत जरा — सी रही
छत पर गेसूओं की उदासी रही
शहर — भर बरसे नेह के बादल
मगर मेरी गलियां तो प्यासी रही!
तुम्हारी याद में
तुम्हारी याद में तन्हाइयां पड़ी थीं
दराज में जैसे दवाईयां पड़ी थीं
चल कर मंज़िल कैसे पाता भला
भाग्य – लकीर में बिवाईयां पड़ी थी
उत्सव
ये दरिया है रौशनी का, बहेगा
जग तो इसे उत्सव ही कहेगा
हर तराशा हुआ पत्थर तन्हा था
उत्सव में भी– तन्हा ही रहेगा!
प्यार में
यदि प्यार में मेरी नाकामी होगी
फिर कोई पूजा कैसे फलगामी होगी
दिल जो टूटा चाहत में किसी का
तो राम ! तेरी भी बदनामी होगी!
देख
दीन देखकर हरेक की व्यथा देख
ईमान के कारण रोटी अन्यथा देख
सारे जीवन की सच्चाई जान लेना
दिल के अंदर पहले रामकथा देख!
तुम्हीं ने
तुम्हीं ने तन्हाई का प्रभाग दिया
तुम्हीं ने जुदाई का वैराग दिया
आज आकर प्रकोष्ठ पर तुम्हारे
लो, मैंने भी प्रेम त्याग दिया!
मेरे वचन
मेरे वचन की उसको खात्री हो जाये
इस मोड़ वह भी सह -यात्री हो जाये
सोने से पहले मैं याद करुं अकसर
ये शुभ -रात्रि अब राम- रात्रि हो जाये!
अपने राम
दिल निकाल के पर्स में रखूं
ग़म सिगरेट के कश में रखूं
फिर तन्हाई का साया न मिले
अपने राम अपने वश में रखूं!
ये दरिया है
ये दरिया है रौशनी का, बहेगा
जग तो इसे उत्सव ही कहेगा
हर तराशा हुआ पत्थर तन्हा था
उत्सव में भी– तन्हा ही रहेगा
नहीं आ पाऊंगा
गरीबी से मुश्किल है निकल पाना
मैंने घर को ही मंदीर है माना
राम ! अयोध्या मैं नहीं आ पाऊंगा
तुम्हीं एक दिन द्वारे चले आना..
यह प्रेम
यह प्रेम कहां आकर ठहरा है
यहां तो चकाचौंध का खतरा है
देखने वाले देख ले जरा इधर
मेरी आँखों में रामरंग उतरा है!
हृदय में
हृदय में ध्वनित अनुराग होता है
जिव्हा में गुंजित रसराग होता है
शब्द- सुरों से बहती पवन – सा
मेरा प्रत्येक छंद रामराग होता है!
चतुर आदमी
चतुर आदमी कर्म को बोता है
मूर्ख आदमी किस्मत पर रोता है
घर-संसार का अपना काज ही
सबसे उत्तम रामकाज होता है!
दूर जाऊं
शोर- भरी दुनिया से दूर जाऊं
निशब्द हवा के संग घूम आऊं
सब लोकाचार के बीच हैं गाते
मैं बैठ अकेले में रामराग गाऊं!
हो जाये
इस मोड़ वह भी सह -यात्री हो जाये
मेरे वचन की उसको खात्री हो जाये
सोने से पहले मैं चाह करुं अकसर
ये शुभ -रात्रि अब राम- रात्रि हो जाये!
सच की खातिर
सच की खातिर सच ही अड़ा है
हर शख्स रोड़ा बनकर खड़ा है
ईमान पे चलना हो सरल शायद
रामपथ पे चलना कठिन बड़ा है!
सच्चे कथन
सच्चे कथन में झूठी बात देखीं
अच्छे कायदे में बुरी घात देखीं
हमने कोटा- सिस्टम में यहां पर
अगड़ों में भी पिछड़ी जात देखीं…
क्यों महिलाओं को
क्यों महिलाओं को ही रोना चाहिए
कुछ मर्दों को भी खोना चाहिए
इनकी हूरों का सामना जन्नत में
इन्द्र की अप्सराओं से होना चाहिए!
वैदिक पाठ – शालाएं
तुम्हें बच्चों में जिज्ञासा तो मिलेगी
तुम्हें बच्चों में ग्लानि भी खलेगी
जब तक कि गांव -गांव गली -गली
वैदिक पाठ – शालाएं नहीं खुलेगी!
यह कैसी आजादी
जाने कौन गली में पत्थर उछाले
शहर जब भी शोभा -यात्रा निकाले
यह कैसी आजादी मिली कि यहां
हरेक पर्व है ! नफरत के हवाले…
जख्मों की आहट
जब जख्मों की आहट होती है
टीस अंदर से प्रगट होती है
राम ! क्या बताऊं कि ऐसे में
एक याद ही केवट होती है !
दिल की डगर
दिल की डगर जाना है कहीं
उसकी प्रतीक्षा में बैठा हूं वहीं
राम ! तुम तो घर लौट गये
मैं अभी तलक लौटा ही नहीं.
सृष्टि तुम्हारी
राम! सृष्टि तुम्हारी है ओम — सी
हृदय में जैसे ज्वाला होम — सी
तुम ने शिला अहिल्या बनायी मगर
उसे भावना भी देते मोम — सी !
प्यार कभी
प्यार कभी देर -सबेर तो मिले
गुलाब न सही कनेर तो मिले
कर्मफल की आस कि मुझे भी
शबरी -से झूठे बेर तो मिले .
राम
राम ! तुम्हारा नाम लेना छोड़ा नहीं
राम ! तुम्हारे लिये मुंह मोड़ा नहीं
तुम ने प्रस्तर जोड़ सेतु बनाया —
पर टूटा दिल कभी जोड़ा नहीं
होना चाहिए
अहम बात पर परिसंवाद होना चाहिए
निर्णय का पक्ष निर्विवाद होना चाहिए
कोई आडम्बर होगा कैसे ज्ञान भला
ब्रह्मणवाद को भी ब्रह्मवाद होना चाहिए!
ज्यां पाल सार्त्र
हर तर्क सहअस्तित्ववाद से काटने वाला
फ्रांस की व्यथास्थिति को पाटने वाला
शायद – कोई ज्यां पाल सार्त्र रहा होगा
वो गली – गली पाम्पलेटस् बांटने वाला!
मूल्यांकन
कभी सत्यजीत राय का फिल्मांकन हुआ
कभी एम एफ हुसैन का चित्रांकन हुआ
कभी कथित एजेंसी की डाक्यूमेंट्री में-
अपने भारत का ग़लत मूल्यांकन हुआ.
संघर्ष जिन्दगी का
आज साहित्य भी जिससे अन्जान है
संघर्ष जिन्दगी का वही बे-जुबान है
कभी चौपालों पर बैठ कर तो देखो
यहाँ हर गांव प्रेमचंद का गोदान है!
ज़मीन वहां की
जिस प्राचीर पर बदली छाती है
ज़मीन वहां की क्रांति लाती है
कभी गरजते थे दिनकर मंचों से-
सिंहासन खाली करो-जनता आती है!
रास्ते में
बैठ रिक्शे पर यादें ताजी हुयीं
साथ चलने को घर राजी हुयीं
रास्ते में फिर मुझे गुलज़ार मिले
बातें उड़ती रही…नज़्में पाजी हुयीं.
कर्ज सरकारी
जब मोफत में कर्ज सरकारी मिले
लगे पराये घर कन्या -कुवांरी मिले
श्रीलाल शुक्ल बताते हैं कि उन्हें-
कितनी चौखट पे राग -दरबारी मिले.
गली -गली
गली -गली में पब्लिक की इबादत है
गली – गली में पब्लिक की हजामत है
यहां मत आईये, रविंद्र कालिया जी
यहां पर खुदा सही सलामत है !
श्याह होती मुंबई
श्याह होती मुंबई रैम्बो दिखाई दे
नंगी सड़क नवी टेम्पो दिखाई दे
यहां हर शख्स टेबासिंह -सा लगे
कागज पर मरता मंटो दिखाई दे!
उलझे ख्वाब
उलझे ख्वाब का टूटा तिलिस्म हूं
इंसानी नस्ल की कौनसी किस्म हूं
मैं भी — फैंच काफ्का की तरह
खाली जाम- सा खोखला जिस्म हूं!
कोई बुलबुल
कोयल माईक के आगे कविता बांचेगी
कलम खुद नयनों की भाषा जांचेगी
जब -जब मणि मधुकर के रंगमंच पर
कोई बुलबुल सराय की राधा नाचेगी.
अंधों की चौखट पर
जो जान यहां तक देकर पहुंचे
जो तूफां में नाव खे कर पहुंचे
हमीं थे — अंधों की चौखट पर
जो घर से आईना लेकर पहुंचे!
माना कि
दिल जब चाक़- जिगर होता है
बुरा सब पेशे – नज़र होता है
माना कि मेरी दुआएं नहीं कारगर
पर बद्दुआओं का असर होता है
वक्त के साथ
मुद्दे उछालने की जंग जुबानी है
चर्चा में रहना आदत पुरानी है
वक्त के साथ नारे धूमिल हुये
कल राफेल था आज अदानी है!
बदलते ही
शस्त्र बदलते ही प्रहार बदलता है
पार्टी बदलते ही प्रचार बदलता है
इसे सियासी परिपेक्ष्य में यूं देखा
व्यक्ति बदलते ही विचार बदलता है.
दिल की डगर
दिल की डगर जाना है कहीं
उसकी प्रतीक्षा में बैठा हूं वहीं
राम ! तुम तो घर लौट गये
मैं अभी तलक लौटा ही नहीं
राम
राम! सृष्टि तुम्हारी है ओम — सी
हृदय में जैसे ज्वाला होम — सी
तुम ने शिला अहिल्या बनायी मगर
उसे भावना भी देते मोम — सी !
प्यार कभी
प्यार कभी देर -सबेर तो मिले
गुलाब न सही कनेर तो मिले
कर्मफल की आस कि मुझे भी
शबरी -से झूठे बेर तो मिले
शिकायत
मौसम से शिकायत जरा — सी रही
छत पर गेसूओं की उदासी रही
शहर — भर बरसे नेह के बादल
मगर मेरी गलियां तो प्यासी रही!
तुम्हारी याद में
तुम्हारी याद में तन्हाइयां पड़ी थीं
दराज में जैसे दवाईयां पड़ी थीं
चल कर मंज़िल कैसे पाता भला
भाग्य – लकीर में बिवाईयां पड़ी थी
लौट भी आओ
आज हर नगरवासी ने कहा है
चरण – बिम्ब पर आंसू बहा है
लौट भी आओ , वर्षा – वनों से
राम! मुकुट तुम्हारा भींग रहा है !
चंचल हवा
जब चंचल हवा ने बदन छुआ
तुम्हें देखने चांद अटारी पे रूका
एक शाम मुलाकात ऐसी भी रही
यहां खिड़की खुली वहां दीप बुझा.
मिली दुआ
दिलों के मिलन को मिली दुआ
भार नक्षत्रों ने भी उठा लिया
पर हवाएं आग्नेय दिशा की थीं –
उसने बसता घर ही जला दिया
गया
ताल की तलाश में सारस गया
मेघ भी देखने तुम्हें तरस गया
तुम व्दार पर दीपक रख गयी
मैं खड़ा बरामदे से वापस गया .
टीस
जब जख्मों की आहट होती है
टीस अंदर से प्रगट होती है
राम ! क्या बताऊं कि ऐसे में
एक याद ही केवट होती है !
अपने भीतर
अपने भीतर कुछ था तलाशा जिसे
सब जग कहता था निराशा जिसे
ये मेरी लगन या कोई कल्पना –
बोल उठा वो पत्थर तराशा जिसे.
धोका
मुझे प्यार के बदले धोका मिला
नहीं कोई किस्मत से मौका मिला
जो खुशी भी मिली, मिली नकली मुझे
मगर ग़म हमेशा ही चोखा मिला!
खट्टा -मीठा
जीवन को बना कर खट्टा -मीठा, सबसे ऐंठा – ऐंठा मैं
यहां हैदराबाद की बिरयानी तो वहां आगरे का पेठा मैं
एक ही फूल का रसास्वादन पूरा कभी किया नहीं
ये क्या करना चाहा था और — क्या करके बैठा मैं!
जश्न – ए -बहारां
ये जश्न – ए -बहारां है यहां सभी को आना है
आकर अपने हिस्से का कोई किस्सा सुनाना है
मगर मैं खोया रहता हूं तेरे खामोश ख्यालों में
मुझे तो इस खजाने को पाकर ही लूटाना है!
गुनगुनाती नहीं है
हवा, फूलों-भरी ऊंची बालकनी पर सरसराती नहीं है
गली, सांझ की खिड़कियों के संग गुनगुनाती नहीं है
पता नहीं आजकल क्या हुआ उस मासूम लड़की को
वो दूर से देखती जरूर है — मगर मुस्कुराती नहीं है!
कभी ना कभी
कभी ना कभी तो दिलवाले मिल के रहते हैं
मगर ये तुम समझती हो ना हम समझते हैं
चांद- तारे भी गगन में गले मिलते हैं जरूर –
इसी उम्मीद की लय पे, तो दिल धड़कते हैं!
बिखरी बिखरी
तुम्हारी खातिर स्वर्ग को भी धरती पर उतार दूं
बिखरी बिखरी -सी जुल्फें तुम्हारी चूम के संवार दूं
तुम यदि प्रेम करना चाहो तो,ओ पत्थरदिल सनम!
मैं अपना ये कोमल हृदय ,बोलो-तुम को उधार दूं ?
मैं दीवाना हूं
मैं दीवाना हूं दीवाने को दीवाना ही रहने दे
एक आंसू हूं मुहब्बत का अपने – आप बहने दे
मेरी दीवानगी को तू मत कहना पागलपन —
ये पागल दुनिया जो चाहे मुझे कहती है कहने दे!
छोड़ दिया
पर्वत ने बीच चट्टान को जैसे दरकता छोड़ दिया
पानी इतनी जोर से उछला तट छलकता छोड़ दिया
रिश्तों के घने जंगल का –मैं भटका हुआ रास्ता था
इस विरान रास्ते को उसने फिर भटकता छोड़ दिया
कहां पे उलझना
जिस तरफ जाना मना था उस तरफ गये हम
जमाने की तेज गति को खूब समझ गये हम
दिल का घायल रिश्ता मिला कांटों -भरी राह में
कहां पे उलझना चाहाऔर कहां उलझ गये हम
मिलने के नाम पर
मिलने के नाम पर कसम, डाली थी सबकी मुझे
मेरे मेसेज को पढ़े- बगैर कह दिया सनकी मुझे
कल जब मैंने बात करके, समझाना भी चाहा तो
उसने दी मोबाईल पे ब्लाॅक करने की धमकी मुझे
ग़मों की बदली
ग़मों की बदली छाती है तुम्हारी याद सताती है
शाम यादों की तन्हा है ,और तन्हाई रुलाती है
मैं अक्सर भींगता रहता हूं सावन में फूहारों से
जो रह रहकर मेरा ये दिल जलाती है बुझाती है!
मेरी खता नहीं
दिल रो -रोकर कह रहा है मेरी खता नहीं है
कैसे दर तक तुम्हारे पहूंचा मुझको पता नहीं है
जिसके लिये उमर -भर मैं लड़ाता रहा अकेला-
वो मंजिल तो सामने है, आगे रास्ता नहीं है !
सुलगती सांस
जो तुम मुझसे मिलो एकबार तुम्हें भी प्यार हो जाये
सुलगती सांस को छूलो तो फिर एतबार हो जाये
तुम्हारी याद में डूबा रहता है ये दिल कुछ ऐसे —
कि जैसे डूब कर पत्थर खुद पानीदार हो जाये !
गुलदस्ता
सजा कर दिल हथेली पर–उसके घर दे आया
गुलदस्ता अपनी गज़लों का वहीं छोड़ के आया
टूटती दोस्ती का गम, ये न करता तो क्या करता
मैं देकर जान मुहब्बत में खाली जिस्म ले आया!
सच कहूं तो
तुम्हारे तन पे अंगड़ाती हुयी जो ताजा जवानी है
कैसे शब्दों में वर्णित करूं, ये चमक रूहानी है
खुद कविता ने रचा हो जिसके अप्रतिम रूप को
सच कहूं तो — उस पर, कुछ रचना बेमानी है…
वो मासूम चेहरा
दिल के शीशे में झांकता है ऐसे कि संवर जाता है
मुझे देख के मुस्कुराता है जब भी जिधर जाता है
मगर आजकल मुहब्बत के नाम पे है परेशान -सा
वो मासूम चेहरा, मेरी गली से चुपचाप गुजर जाता है!
जहां दिखे
जहां दिखे साये देवदार –से तनिक रूक गया मैं
जहां मिले टीले अंधकार –से क्षणिक झुक गया मैं
मज़िल की तलाश में कभी,बदहवास दौड़ा नहीं था
वरना मुझे भी कहना पड़ता कि रस्ता चुक गया मैं..
आज पूछता हूं
आज पूछता हूं कि भगवान धरती पर कहां गया
किस देवता के द्वारा दर्द, दुर्भाग्य का सहा गया
सामने लाश पड़ी थी और मुझे रोते बिलखते हुये
उनकी मांग में रचा सिन्दूर,पोंछने को कहा गया!
जलाया दिल
जलाया दिल पर रौशनाई वहां तक जा न सकी
रोती हुयी मोमबत्ती जहां कोई हंसी पा न सकी
उस बेवफा को प्यार में हजारों गिफ्ट दिये मैंने
वो कभी दस रूपये का एक पेन भी ला न सकी.
वो तस्वीर
झूठे वादों से लाज की दर लांध ली उसने
मेरी वफाएं घर की ठूंटी पर डांग ली उसने
वो तस्वीर जिसे मैं चूम के सोया करता था
वो तस्वीर भी कसमें दे कर मांग ली उसने.
सुरेश बंजारा
(कवि व्यंग्य गज़लकार)
गोंदिया. महाराष्ट्र