मोह | Kavita Moh

मोह ( Moh ) दौड़ रहा वीथिका-वीथिका, सुख सपनों की मृगमरीचिका, थोड़ी देर ठहर ले अब तू, कर ले कुछ विश्राम। भले पलायनवादी कह दें, रखा नहीं कुछ मोह में। सारी दुनिया नाच रही है, जग के मायामोह में। मोह बिना अस्तित्व नहीं है, बात पुरानी नई नहीं है। सारा जगत इसी पर निर्भर, कितनों … Continue reading मोह | Kavita Moh