राज़ | Kavita Raaj

राज़ ( Raaj ) दिवाली की रात आने वाली है, पर दिवाली ही क्यों? रोजमर्रा की जरूरत गरीबी ,लाचारी, सुरसा के मुंह की तरह मुंह खोल खड़ी है। जाने क्या गज़ब ढाने गई है वो? लौट के जब आएगी, चंद तोहफ़े लायेगी। भूख ,प्यास से, बिलख रही है उससे जुड़ी जि़दगीयां अचानक अचंभा हुआ—— कुछ … Continue reading राज़ | Kavita Raaj