अकोला के ये सिनेमाघर

बहते जीवन की पहचान.. अकोला के ये सिनेमाघर

अकोला फिल्मो का शौकीन हैं.. अकोला में फिल्में भर भर कर व्यपार करती है.. फिल्मो के प्रति जुनून ओर दीवानगी जो अकोला वासियों में है उस के उदाहरण कम ही है.. मगर अब हालात बदले है.. सिनेमा अब अकेला होने लगा है।

सिनेमाघरों से भिड़ छंटने लगी है.. सिनेमाघरों के बाहर जो मेले लगते थे वे अब नजर नही आते.. टिकटों की काला बाजारी इतिहास में जमा हो गयी है.. हाउसफुल के बोर्ड सालो से न जाने कहा धूल खाते पड़े हैं.. उन्हें अब कोई निकालता नही.. उसकी जरूरत नही पड़ती.. जनता ने मनोरंजन के मन्दिरो से मुख फेर लिया है।

एक जमाने मे अकोला में मनोरंजन के मंदिर बहुत थे.. ओर सभी छविगृह हमेशा ठसाठस भरे रहते थे.. महीने भर चलने वाली फिल्मो को फ्लॉप कहा जाता था.. सिनेमाघरों के आसपास एक अलग तरह का ही तिलस्म बंधा सा रहता था.. राह चलते व्यक्ति को सिनेमाघर के सामने रुकना अनिवार्य था.. आगामी आकर्षण के बोर्ड देख कर खोमचे वालो से उन फिल्मो पर पांच सात मिनिट की चर्चा जरूरी थी।

फ़िल्म के मध्यांतर में गाड़ी वाले, खोमचे वाले इस टॉकीज से उस टॉकीज की ओर दौड़ा करते थे.. जीवन के जरूरी मसलों में सिनेमा हावी रहता था.. घर के बच्चे भले ही पढ़े न पढ़े मगर मेरा नाम जोकर देख कर ऋषि कपूर की पढ़ाई की चिंता करते थे कि देख लेना यह अब आगे नही पढ़ेंगा.. तो सिनेमाघर बहुत थे अकोला में.. आज भी है.. कुछ के नाम बदल दिए गए हैं.. कुछ जमींदस्त कर दिए गए हैं.. कुछ अवसान की स्थिति में है।

आज के समय मे अकोला में मानेक सिनेमा अपनी ऊंचाइयों को बरकरार रखे हुए हैं.. देश के शीर्ष फिल्मकारों की फिल्में मानेक टॉकीज में बतायी जाती है.. शोले के इतिहास रचने में मानेक सिनेमा का भी योगदान है.. माँ के साथ लेडीज क्लास में मैने रोटी कपड़ा और मकान मानेक में देखी थी।

वसंत सिनेमा भी बहुत बढ़िया है और सुपर सितारों से सजी फिल्में यहा लगती रहती है.. आगे बढ़ने से पहले बता दु की वसंत सिनेमा से हमारा गहरा नाता रहा है.. इसी में बाबूजी की होटल थी ओर बाबूजी ने मुझे बताया था कि महान फिल्मकार स्व. पृथ्वीराज कपूर जी एक फ़िल्म के रिलीज पर अकोला आये थे और बाबूजी की होटल में उनके साथ चाय पी थी।

यह वसंत टॉकीज पहले सरोज टॉकीज के नाम से जानी जाती थी.. बाद में इसका नाम और बदला ओर यह सरोज से श्री टॉकीज बन गयी.. ओर फिर श्री से वसंत.. वसंत टॉकीज के इर्दगिर्द के कहि किस्से आज भी लोगो की जुबां पर है.. बुलंदियों को हासिल कई लोगो का वंसत सिनेमा से रिश्ता रहा है तब जब कि वे पहचान बनाने हेतु आतुर थे।

चित्रा टॉकीज सिटी कोतवाली के पास में थी.. थी से मतलब अब वह नही है.. वहा पर अब बहुत बड़ा मॉल बन गया है.. उस मॉल में भी सिनेमाघर बनेगा ऐसी जानकारी मुझे है मगर अभी वह निर्माणधीन है.. चित्रा टॉकीज में महानायक अमिताभ बच्चन की नमक हराम ओर सिलसिला खूब चली थी ।

इसी सिनेमाघर में नागिन फ़िल्म ने खूब धूम मचाई थी.. नागिन फ़िल्म का एक गीत तन डोले मेरा मन डोले के दृश्य पर कहते हैं एक नाग नागिन का जोड़ा आ कर नृत्य करता था (हालिका मैं इसे अतिश्योक्ति मानता हूं क्योंकि सांपो के कान नही होते हैं ).. सुनील दत्त अभिनीत नागिन भी इसी चलचित्र में लगी थी.. तेरे संग प्यार मैं नही यह गीत मेरे कानों में आज भी उसी ताजगी के साथ गुंजायमान है जितना कि जब यह फ़िल्म रिलीज हुयी थी.. चित्रा टॉकीज पर भी खूब भीड़ जमा होती थी और हमेशा उत्सव के हालात देखे जा सकते थे।

रीगल सिनेमा भी अपने आप मे बहुत मायने रखता है.. रीगल का पुराना नाम श्री कृष्ण सिनेमा था.. अकोला में पहली बार कोई सिनेमा नो शो में लगा तो उसका गौरव रीगल टॉकीज को जाता है.. वक्त की आवाज ओर मर्द जैसी फिल्मों को एक दिन में इतने अधिक शो होने का बहुमान हासिल है।

इस के पूर्व में फिरोज खान की कुर्बानी सात शो में वंसत में लगी थी.. सुबह चार बजे के शो के लिए रात को दस बजे से ही टिकिट खिड़की पर शौकीन टूट पड़े थे.. पुलसिया डंडों के बरसने के बावजूद भी भीड़ टस से मस नही हुयी थी.. मर्द फ़िल्म मैने भी पहला शो में देखी थी.. उस दिन टिकिट कैसे मैने हासिल की यह तो मेरा मन ही जानता है मगर पसीने से तरबतर हो कर एक अप्रिय गन्ध के साथ फ़िल्म देखने का अपना एक अलग ही आनंद है.. मैने वह आनंद लिया है।

आज बस स्टेशन के पास जो निशांत टॉवर है वहा पर भी कभी किसी दौर में सिनेमाघर हुआ करता था.. सेंट्रल टॉकीज के नाम से वह सिनेमाघर जाना जाता था.. यह सेंट्रल टॉकीज 1942 में बनी थी और 1960 के आसपास यह बंद हो गयी.. इस सिनेमाघर में उस दौर की सुपरहिट फिल्में लगती थी.. अशोक कुमार की झूला इसी में लगी थी और विदेशो में बनी फिल्म सुपरमैन भी यही लगी थी.. मराठी फिल्मों के कलाकारों का इस सिनेमाघर में बहुत अधिक आना जाना था।

शालिनी टॉकीज अभी बंद है मगर वह है.. सिनेमा नही लगते हैं मगर वह खड़ी है.. अकोला के मध्य में सिटी कोतवाली के सामने.. यह सम्भवतः सब से पुराना सिनेमाघर है.. सिनेमा के चलन से भी पहले यह मौजूद थी.. तब यह श्रीराम थियेटर के नाम से जानी जाती थी.. बड़े बड़े दिग्गज रंगमंच के कलाकारों द्वारा यहाँ नाटक पेश किए जाते थे।

सोहराब मोदी और पृथ्वीराज कपूर जैसे कलाकारों ने इस रंगमंच पर अपने नाटक खेले हैं.. रात के बारह बजे जब नाटक समाप्त हो जाते तो सोहराब मोदी और पृथ्वीराज कपूर वहाँ पीछे बाड़े के आसपास के लोगो के पास जाते थे.. उनसे बात करते.. बीड़ी का धुआं उड़ाते.. चाय पीते.. तंबाकू खाते ओर उन्ही की खाट पर आराम फरमाते थे.. कितना सकून मिलता है न यह सोच कर इतने बड़े सुपर सितारे सहज यू ही उपलब्ध थे।

सिनेमा ने स्टारडम को गड़ा ओर फिर फिल्मी सितारे सचमुच किसी सितारों से हो गये.. आमलोगों में उठना बैठना एक सपना सा हो गया.. अब तो कोई छोटा सा कलाकार भी अपनी वैनिटी वैन में बैठा रहता है मगर जनता से मिलने में हिचकिचाता है।

राजकमल सिनेमा तो मेरे सामने ही बना और मेरे सामने ही जमींदोज हो गया.. राजकमल बहुत ही लंबा सिनेमाघर था.. अकोला के सभी सिनेमाघरों की बॉलकनी ऊपर थी.. उपर है मगर राजकमल सिनेमा इस मामले में अपवाद ही रहा.. यहाँ बॉलकनी भी नीचे ही थी.. बनावट इसकी बॉलकनी से पर्दे की ओर एक रपटे की जैसी थी जिस से की अधिक पैसे देने वालो को ऊपर बैठने का ही अहसास होता था ।

अमिताभ जी की शहंशाह इसी सिनेमाघर में लगी थी. मनोरंजन के बढ़ते हुये साधनों ने सिनेमा और सिनेमाघरों का कत्ल सा कर दिया है.. पूरी फिल्म की टिकट ले कर एक गीत सुनकर देख कर सिनेमाघर से निकल जाने वाली मौजु मंडली अब कहि दिखाई नही पड़ती.. फ़िल्म के मध्यांतर में गेट पास बेचने खरीदने वाली टोली लुप्तप्राय है।

मेरे नानाजी ने गेट पास बेची थी.. यह बहुत पुरानी बात है.. तब मैं बहुत छोटा ओर उन्ही दिनों मानेक सिनेमा में कुमार गौरव की लव स्टोरी फ़िल्म लगी थी.. फ़िल्म बहुत प्यारी थी और उसके गीतों ने खूब धूम मचाई थी.. मोहल्ले में हम बच्चे मस्ती करते करते लव स्टोरी के गीत जोर जोर से गाया करते थे.. नानाजी गाँव से अकोला आये तो मैने बहुत जिद की कि नानाजी यह फ़िल्म देखे।

मगर उन्हें सिनेमा रास नही आता था और अन्य बुजर्गो की तरह वे इसे खराब समझते थे.. वे मना करते रहे और मैं जिद करता रहा.. आखिरकार मैं जीता और उन्हें मानेक सिनेमा पर ले कर गया.. टिकिट उन्हें बहुत महंगी लगी तो वे थियेटर से लौटने को उध्दत हुये.. मैने उन्हें बताया थर्ड क्लास में कम पैसे लगते हैं तो वो फ़िल्म देखने को तैयार हो गये.. उन्हें फ़िल्म में बैठाकर घर लौट आया.. थोड़ी देर बाद नानाजी वापस आ गये ।

मैं हैरान रह गया कि फ़िल्म तो तीन घँटों की है और नानाजी पहले कैसे आ गये.. नानाजी आते ही मुझ पर भुनभुनाये.. कुछ भी करता है.. समझता नही.. कहा मुझे फसा दिया.. सब बेकार लोग भरे हैं टॉकीज में.. जोर जोर से सीटियाँ बजाते हैं.. कुछ सुनने ही नही देते।

मैं समझ गया कि शौकीनों ने गीतों पर खूब हुल्लड़ किया होंगा.. ओर थर्ड क्लास में सीधे सरल पगड़ी धोती कुर्ते वाले बुजर्ग को देख कर कुछ ज्यादा ही मस्ती की होंगी.. मैंने कहा पैसे फालतू गये.. आप पूरी फिल्म तो देखना था.. तो नानाजी मुझे गुस्से से बोले इतना पागल नही हु।

मैने गेटपास बेच दी.. ये देख पैसे.. नानाजी सरल तो बहुत थे मगर गेटपास उन्होंने आधे से भी अधिक पेसो में बेची थी.. मैने हैरानी से माँ को देख.. माँ मुझे देख कर मुस्करा पड़ी ।

न्यू प्लाजा टॉकीज ओर श्याम टॉकीज आमने सामने ही थी.. न्यू प्लाजा का नाम बदला गया और वह श्रावगी टॉकीज के नाम से जाने जानी लगी.. श्याम सिनेमा का भी नाम बदला और अब उदय थियेटर है.. कालांतर में श्रावगी सिनेमा बंद हो गया और वहा पर अभी बहुत बड़ा मार्किट बन गया है.. न्यू प्लाजा में मैं बचपन मे राजश्री की तपस्या फ़िल्म देख रहा था.. मध्यांतर में मैने देखा बड़े मामाजी भी सिनेमा में है।

मेरा बाथरूम जाना बहुत जरूरी था मगर मामाजी की डर से वही बैठा रहा कि वे मुझे डांटेंगे.. सिनेमा खत्म हुआ तो आखिरकार उनकी नजर मुझ पर पड़ ही गयी.. वे मुस्करा से गये.. बोले कुछ नही.. बोल तो वे अभी भी कुछ नही पाते हैं.. कैसे बोलेंगे.. अब कहा है वे हमारे साथ.. वे तो बहुत दूर चले गये है.. इतने दूर जहाँ से वापस कभी कोई नही आता.. सिनेमा की दास्तां कहते कहते कैसे भावूक क्षण भी आ जाते हैं।

जिंदगी भी सिनेमा सी हो गयी है.. साथ निभाने वाले सभी पात्र अपना अपना रोल निभा कर चले गये है.. कल को घर के दसियों मुखिया थे.. आज वे सब नही है.. अब घर का मुखिया मैं हु.. घर का मुखिया बनना बहुत मुश्किल वाला काम है यह मेरी समझ मे अब आ रहा है तब जबकि मैं बाबूजी को बडी हसरत से देखता था की वे कैसे पूरे परिवार को नेतृत्व प्रदान करते थे.. सिनेमा तीन घँटों में सिमट जाता है मगर जीवन का सिनेमा हमारी सांसो के रुकने तक चलता है.. मेरा सिनेमा शुरू है.. माँ बाबूजी सभी के रोल खत्म हुये.. उन्होंने अपने हिस्से के सिनेमा को बहुत बेहतर बनाया था.. अब देखना है मेरा सिनेमा क्या गुल खिलायेगा..!

राधा कृष्ण टॉकीज भी शुरू हुई तो जनता में बेहद खुशी हुयी.. अकोला में एक साथ दो सिनेमाघरों का यह पहला प्रयोग था.. सिनेमा के शौकीन इस थियेटर में भी खूब आते थे मगर यह सिनेमा अनवरत शुरू नही है.. कभी बंद होता है तो कभी शुरू होता है.. अभी यह फिर नये नाम से पहचाना जा रहा है.. नया नाम.. मिराज सिनेमा.. इस के अलावा इसी के पास एक छोटा सा सिनेमाघर अभी नया नया शुरू हुआ है.. छोटू महाराज सिनेमा।

यह आम सिनेमा सा नही बल्कि एक छोटा पारिवारिक मूवी थियेटर है जो मनचाहा सिनेमा लगाता है और खाने पीने को भी देता है.. यानी कि आप खाते पीते परिवार के साथ फ़िल्म का लुत्फ उठा सकते हो.. मगर अभी यह बहुत अधिक चलन में नही है और न ही इस बारे लोगो को कुछ अधिक जानकारी है.. जिन दिनों VCR आये थे और होटलों वालो ने उन पर फिल्में दिखा कर अपने मिष्ठान बेचे थे उसी तर्ज पर मुझे यह छोटू महाराज सिनेमा लगता है, हालांकि मैं यहाँ गलत भी हो सकता हु।

अकोला के वाशिम बाय पास चौक पर भी एक बहुत बडे मॉल का निर्माण शुरू है जिस में की दो सिनेमाघर बनाये जाएंगे.. अकोला की बढ़ती हुयी जनसँख्या को देखते हुये अभी कम से कम ओर दस एकल सिनेमाघरों की आवश्यकता है.. मल्टीप्लेक्स सिनेमा बहुत महंगे होते है और दर्शकों की बनावटी मुस्कुराहट से ऊब पैदा करते हैं.. असल जीवन तो एकल सिनेमाघर में पल्लवित होता है जहाँ दर्शक बिना झिझक के हीरो के साथ गाता नाचता है और जोश में आ कर कुर्सी पर कुकुडु हो कर खलनायक की ओर मुट्ठी तानता है.. विलेन के अड्डे पर हीरो के प्रवेश पर उछलकर जोर से चिल्लाता है आ गया तेरा बाप।

अकोला के उमरी में एक टूरिंग टॉकीज भी हुआ करती थी.. इस टूरिंग टॉकीज का नाम पुष्पा टॉकीज था.. बताया जाता है कि इसकी छत नही थी और रात को ही इसके शो हुआ करते थे.. चादर चटाई पर दर्शक बैठते थे.. कुर्सियां बहुधा इसलिए भी नही रखी जाती थी कि चालू सिनेमा में दर्शक इसे उछाल दिया करते थे.. छोटे मोटे झगड़े आम थे और सुरीले गीतों पर ताल मिलाना दर्शकों का शगल था.. मेहकर में टूरिंग टॉकीज में मैने भी कई सिनेमा देखे हैं.. टूरिंग टॉकीज में सिनेमा देखने का एक अलग ही मजा आता है.. दिन के शो में फ़टे हुए टेंट से धूप छन छन कर अंदर आती है.. रोशनी ओर अंधेरे का अनोखा संगम टूरिंग टॉकीज में देखा जा सकता है।


सिनेमाघरों की चर्चा में नाट्य मंदिर की चर्चा भी जरूरी है.. अकोला का प्रमिला ताईं ओक हॉल कलाकारों के लिए किसी मंदिर से कम नही है.. मराठी नाटकों के सभी शीर्ष अभिनेताओं ओर अभिनेत्रियों ने यहाँ अपनी कला के जौहर दिखाये है.. हिंदी फिल्मों के कई चरित्र अभिनेता भी यहा आते रहते हैं.. यहाँ गीत संगीत के गजब का कार्यक्रम होते हैं.. लावणी की प्रस्तुति होती है और ऑर्केस्ट्रा भी खूब होते हैं.. कभी कभार कवि सम्मेलन भी होते हैं।

इसी के पास में ओपन थियटर भी है.. यह सरकारी है और चारो तरफ से खुला है इसलिए इसे ओपन थियेटर कहते हैं.. वैसे इसका नाम बाबा साहेब अंबेडकर खुले नाट्य गृह है.. बचपन मे मैं पहली बार प्रसिद्ध खलनायक श्री रजा मुराद से यही मिला था.. तब भी वे पहचान रखते थे मगर जितने नामचीन आज है तब शायद नही थे क्योंकि मुझे उन से मिलने में कोई परेशानी नही हुयी..

उन के साथ मे उस समय के सी ग्रेड फिल्मो के हीरो जावेद खान भी थे और जावेद खान से लोगबाग आटोग्राफ ले रहे थे.. रजा मुराद जी और जावेद खान जी के साथ मेरी ब्लेक ऐंड व्हाइट तस्वीर आज भी है.. हालिका यह तस्वीर सिर्फ मेरे लिए नही खींची गयी थी बल्कि कुछ अन्य लोगो के लिये खींची जा रही थी.. मैं भी इस मौके को गवाना नही चाहता था सो मैं भी उनके साथ हो लिया..

बाद में मैने फोटोग्राफर को अधिक पैसे दे कर वह तस्वीर हासिल की.. सिनेमा का उन्माद सच मे इंसान से क्या क्या करवाता है.. मगर मुकाम सभी को हासिल नही होता.. सुंदर सिनेमा का अंग जो जो बने हैं वे सब इस के विभत्स रूप को जानते हैं..

उनकी कड़ी मेहनत और लगन और उनकी कला से वे आज हमारे दिलों दिमाग पर छाये हुये है.. मगर ओर भी अधिक मेहनत और संघर्ष करने वाले लोगो की कोई कमी नही है जो कि आज भी पहचान को तरस रहे हैं.. अपनी पूरी जिंदगी सिनेमा में खफा कर भी नाम तो नही ही कमाया मगर दो समय की रोटी के लिये भी मोहताज है।

अकोला के सिनेमाघर हमारी दिनचर्या के हिस्सा हुआ करते थे.. पहले दिन पहले शो देखने की सभी की इच्छा रहती थी.. जो देख आता उसे ईर्ष्या की नजर से देखा जाता था कि देखो कितना नसीब वाला है.. पहला दिन पहला शो देख आया है.. गांव से आने वाले मेहमानों को सिनेमा अवश्य दिखाया जाता था..

बहुधा मेहमान भी इन्ही भावनाओं को जीते हुये आते थे कि अकोला जा रहे हैं तो दो चार सिनेमा तो देखेंगे ही.. मेहमान भी आते थे तो आठ दस दिन तो रहते ही थे.. एक दो सिनेमा तो मेजबान दिखा ही देता था और समय खाली रहा तो मेहमान भी स्वयं ही अकेले अकेले देख आता था..

हमारे यहाँ आने वाले मेहमानों को मैं सिनेमाघर का रास्ता बताने जाता था और सौजन्य वश मेहमान कहता कि तू भी देख ले न पिक्चर तो मैं तुरंत हामी भर देता था.. ऊपरी खुशी दिखाते हुये ओर मन ही मन भुनभुनाते हुये मेहमान मुझे सिनेमा दिखाता था..

उसकी भुनभुनाहट की वजह होती थी मेरे पास पैसे नही होना.. एक छोटे से बच्चे के पास भला कितने पैसे हो सकते थे.. पांच पैसे या दस पैसे.. जाते समय कभी कोई मेहमान खुश हो कर रुपया दो रुपया दे भी देता तो माँ वह ले कर पांच पैसे हाथ मे थमा देती थी.. बड़ा ही प्यारा समय था वह..

बड़ा ही गझब का वह दौर था.. स्कूल की बीच की छुट्टी रोटी खाने के लिये हुआ करती थी ओर मैं उस का सदुपयोग चित्रा, शालिनी, न्यू प्लाझा, श्याम ओर मानेक सिनेमा जा कर फिल्मो के पोस्टर बड़ी हसरतों से देखता था.. ओर फिर दौड़ता फलांगता वापस समय पर स्कूल आ जाता..

सिनेमा देखने की इतनी दीवानगी के बावजूद भी मैने कभी भी कोई पीरियड मिस कर सिनेमा नही देखा.. सिनेमा के बारे में मेरा अदभुत ज्ञान, रुचि देख बहुधा लोग घर पर आ कर यही कहते थे कि इस पर नजर रखो.. यह स्कूल जाता भी है या नही.. अनेक अनेक धन्यवाद ।


रमेश तोरावत जैन
अकोला
मोब 9028371436

जानकारी.. खोज.. स्त्रोत.. मदद.. श्री बाजीराव जी वझे, श्री घनश्याम जी अग्रवाल, श्री प्रकाश पोहरे, श्री कृष्णकांत शर्मा, श्री संजय इंगले, श्री शर्माजी ( तेलंगना )

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