Poem Jaag Musafir

त्याग निद्रा,जाग मुसाफिर | Poem Jaag Musafir

त्याग निद्रा,जाग मुसाफिर ( Tyag nidra jaag musafir )   बीती रात ,हुआ सवेरा पक्षी कुल का, हुआ बसेरा कैसे लक्ष्य,तय होगा फिर त्याग निद्रा,जाग मुसाफिर,   सोकर कौन? कर पाया क्या? बैठ करके,खोया ना क्या? खोते वक्त, मत जा आखिर, न सोवो उठ,जाग मुसाफिर।   अपने आप, समझता क्यों न? होके सबल, सभलता क्यों…