Vijayadashami kavita

विजयदशमी ( दशहरा )

बुराई से अच्छाई का प्रतीक है दशहरा । यदि भीतर में अच्छे भाव मिलेंगे तो वह अच्छाई ले आएगा। यदि बुरे भाव मिले तो वह बुराई ले आएगा। आंतरिक व्यक्तित्त्व को हम देख नहीं सकते और न ही कोई साधन हमारे पास हैं ।

विचार सबसे अच्छा खास माध्यम हैं । उसके द्वारा हम आंतरिक स्थिति को जान सकते हैं और स्वयं का व्यक्तित्त्व परख और पहचान सकते हैं । हर प्राणी के दो आँखे होती है।

यह हमारे पर निर्भर करता है कि हम उन्ही आँखो से दूसरे व्यक्तियों की ग़लतियाँ ढूँढें या अच्छाइयाँ।सब नज़र का ही फेर है।जैसे ही किसी के प्रति नज़र बदली हमारे सोचने का नज़रिया ही बदल जाएगा।

कल तक दो अच्छे दोस्त, हर दोस्त को एक दूसरे के हर काम में अच्छाई ही नज़र आती थी।अचानक जीवन के एक मोड़ पर हो गयी आपस में तूँ-तूँ में-में और दोनो दोस्तों को एक दूसरे के अंदर कमियाँ दीखयी देने लगी।

यही जीवन की सच्चाई है। पर कमियाँ निकालना बहुत आसान है और फिर दूसरों की कमियाँ चटखारा लेकर अन्य इंसानो के आगे परोसना बहुत आसान है।

कभी उसी जूते में अपना पाँव रखकर चिंतन करना अगर इसी हालात में, मैं यही क़ार्य करता तो क्या में ग़लत होऊँगा।

तत्काल हम दूसरों के जीवन के अंदर झांकना बंद कर देंगे। जब प्रभु ने हम्हे दो सुंदर आँखे और दो सुंदर कान दिये हैं तो गांधीजी वाली बातें याद कर लेना।ना किसी में बुराई देखना ,ना बुराई सुनना और ना अपने मुँह से किसी की बुराई करना फिर देखना इस जीवन में हर इंसान आपको सही नज़र आएगा।

सतयुग या कलयुग लाने से आने की चीज नहीं है, 12 आरों वाले कालचक्र में काल द्रव्य परिवर्तनशील है, समय कभी बंधकर नहीं रहता,वर्तमान समय सिर्फ एक समय होता है। हर काल में मनुष्य के भीतर मानव व दानव दोनों प्रवृति शुभ -अशुभ रूप में विद्यमान रहती है।

जब हम भौतिकता में ,बाहरी दुनिया मे ज्यादा आसक्त रहते हैं तो कलयुग हमारे अंदर दुष्प्रवृत्ति के रूप में हावी होता है और हमारी विवेकचेतना,अनासक्ति की चेतना जाग जाती है, शुभ प्रवृति होती है तो सतयुग के रूप में प्रतीत होती है।

हम भगवान बनने की भी अर्हता रखते हैं, अपनी विवेकशक्ति के जागरण से और आपाधापी की होड़ में बहकर अपने भव बिगाड़ने में भी आसक्त हो सकते हैं तो सतयुग और कलयुग कुछ और बाहर की चीज नहीं,हमारे भीतर विद्यमान हमारे कर्मों के संस्कार से निर्मित हमारे अध्यवसाय है ,जो शुभ-अशुभ रूप में प्रकट होते हैं।

इसलिये कहते हैं दिल की बात, जुबान पर आ ही जाती है । अच्छाई,बुराई जो भी भीतर होती है, कहाँ छुप पाती है। जरूरत है मन को पवित्र भावों से आप्लावित करने की अगर चिंतन सात्विक हो तो, अप्रियता की दुर्गंध नहीं आती है ।

अच्छाई और बुराई हर युग मे रही है और यह बात बहुत अंशों मे सही है , हम आज के दिन बुराई को छोड़ अच्छाई को जीवन में शिरोधार्य करे और मानव भव को सफल करे तभी हम सही से इस पर्व को मना सकते है और यही हमारे लिये काम्य है ।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)

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