अहिल्या : एक जीवनी – एक दर्शन
राष्ट्र सेविका समिति ने आरंभिक काल में ही देवी अहिल्या बाई होल्कर को कर्तव्य के आदर्शवादी रूप में माना है। गंगाजल की तरह निर्मल, पवित्र, पुण्यश्लोक देवी अहिल्या अपने ऐतिहासिक युग का स्वर्णिम युग रही हैं। उनके प्रति समस्त जनसमुदाय की श्रद्धा, निष्ठाभाव, आदर और अपनेपन की भावनात्मक को अभिव्यक्त, प्रतिबिम्बित करने वाली एक लोक कथा भी कही गई है।
वर्षा ऋतु में नर्मदा उफनती हुई बह रही थी। उसकी लहरें होल्कर परिवार के राजगृह की दीवारों से टकरा रहीं थी। गांजा के नशे में धुत्त कुछ लोग आपस मे चर्चा कर रहे थे। अचानक से उन लोगों में से एक व्यक्ति ने उठकर अपने हाथों से दीवार को सहारा देता हुआ खड़ा हो गया। अन्य साथी भी उसके बुलाने से दीवार को सहारा देने लगे। वहाँ खड़े अन्य लोगों ने पूछा कि वे इस प्रकार से क्यूं खड़े है। तब वहाँ से उत्तर आया ‘क्या इतना भी नहीं समझते हो ? अरे अपनी माता अंदर है। आओ, तुम लोग भी आकर माँ को बचाने के काम मे जुट जाओ।’
अब देखिए, जब नशे में बेहोश व्यक्ति भी माँ अहिल्या की सुरक्षा के बारे में इतना सजग है, तो यहाँ ऐतिहासिक सत्यता के अतिरिक्त जनमानस की भावना का दर्शन होता है।
आज के अहमदनगर (महाराष्ट्र) जिले के जानखेड़ तहसील के चौड़ी नामक छोटे से गांव में उनका जन्म हुआ था। माणको जी शिंदे की ये कन्या जब बारह वर्ष की थी तब एक बार पेशवा के महाराज ने शिव मंदिर में शिव की पूजा में लीन अहिल्या को देखा था। उन्होंने मल्हार राव से इस कन्या को अपनी पुत्रवधु बनाने को कहा और 20 मई 1743 के शुभ दिन अहिल्या बाई का विवाह बारह वर्ष की आयु में खांडेराव के साथ संपन्न हो गया।
वैभव संपन्न होल्कर कुल में सर्वगुण संपन्न अहिल्या का पदार्पण हो गया। वो सन 1745 में पुत्र मालेराव एवं सन 1748 में कन्या मुक्ताबाई की माँ बन गई। पुत्र की दुराचारी प्रवृत्ति से व्यथित सूबेदार मल्हार राव ने अहिल्या बाई की योग्यता को परखते हुए उन पर कारोबार का आधिकारिक दायित्व सौंपना प्रारंभ किया।
इसी के मध्य उनके अग्निपरिक्षा के क्षण आ गए। दिनांक 24 मार्च 1754 को कुमेरी युद्ध में खांडेराव की मृत्यु हो गई मल्हार राव के आग्रह पर अहिल्या बाई को सती होने का निश्चय त्यागकर प्रजाजनों की माता बनना स्वीकार किया। वह युग सती प्रथा का युग था।
अहिल्या बाई राजनीति का एक-एक पाठ उनके ससुर मल्हार राव से ग्रहण कर पति के चिर वियोग के दुःख को कम करने का प्रयत्न कर रही थी। तभी 1761 में उनकी माँ समान ममतामयी सास गौतमाबाई की मृत्यु हो गई और तीन साल के उपरांत ही सन 1764 में उनके गुरु, मार्ग दर्शक पितृ स्वरूप आधार स्तम्भ मल्हार राव का भी अवसान हो गया।
अब शासन का सम्पूर्ण दायित्व अहिल्या बाई पर आ गया। उनके पुत्र मालेराव अपने दादा जैसा दूरदर्शी, राजनीति में कुशल नही था। राजकार्य से अधिक रूचि उनको जंगली जानवरों का शिकार करने में थी। पूजा के लिए आने वाले पुजारियों के जूतों में तथा दान पात्रों में बिच्छू इत्यादि रखना और उनके दंश से पीड़ित पुजारियों की चीखें सुनने में उसे आसुरी मजा आता था। इन हरकतों को देखकर तथा दर्जी के दुर्वतन से आशंकित मालेराव द्वारा क्रूरतापूर्ण से की गई हत्या के दण्ड स्वरूप अहिल्या बाई ने अपने घर मे पुत्र को माहेश्वर में भेज दिया। वहाँ पर ही उसकी मृत्यु हो गई।
देवी अहिल्या बाई की कन्या मुक्ताबाई का पति यशवंत फणसे एक होनहार युवक था। मुक्ताबाई का पुत्र जो जन्म से कुछ नाजुक था, उसकी मृत्यु हो गई। उसको उत्तराधिकारी बनाने का सपना टूट गया। यशवंत राव भी इस सदमे को सहन नही कर पाए, वो बीमार हो गए और तीन वर्ष के अंदर वो भी अपनी पुत्र की भांति मृत्यु को प्राप्त हो गए। मुक्ताबाई ने भी अपने पति के साथ सती होने का निश्चय किया।
उन्होंने अपनी बेटी को इससे रोकने का हर संभव प्रयास किया, किन्तु उसके निश्चय को बदल नहीं पाई। देवी तीन दिन तक अपने कक्ष से बाहर नही निकली, नियति को अपनी विजय का आभास हुआ। परन्तु लोकमाता अपनी भूमिका को भूल न सकी। अहिल्या राजकर्तव्य का कठोरता पूर्वक पालन करते हुए मन शान्ति एवं आत्मिक बल के धर्मकृत्य में समय को निरोपित करती रही।
हमेशा प्रतिकूल परिस्थितियों और दुर्भाग्य से संघर्ष करने के कारण उनका शरीर क्षीण होता गया। दिनांक 13 अगस्त 1795 श्रावण 9 भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी के दिन वह गंगाजल सम निर्मल जीवन प्रहार अखंड शिवनाम स्मरण करते हुए शिवप्रहार में विलीन हो गईं।
उन्होंने अपने 28 से 30 वर्षों के कार्यकाल में 12000 मंदिरों का जीर्णोद्धार एवं निर्माण किया। शिक्षा सामाजिक सशक्तिकरण के लिए महत्वपूर्ण कार्य किये। अपने राज्य में कई स्कूल एवं शिक्षण संस्थानों को स्थापित किया। उन्होंने महिला शिक्षा के महत्व को समझते हुए सामाजिक मानदंडों को तोड़ा और समाज की प्रगति के लिए नारी सशक्तिकरण को आवश्यक माना।
उनका मानना था कि मेरे नाना के लिए , एक लड़की की शिक्षा गरीबी से बाहर निकलने का टिकट थी। आज भी लैंगिक समानता के लिए आधुनिक चर्चायें गूंजती है। शैक्षिक सुधारों की नींव रखकर उन्होंने न केवल अनगिनत व्यक्तियों के जीवन को बदला अपितु अपने राज्य की समग्र उन्नति में अपना योगदान दिया।
“मेरा शत-शत नमन इस विभूति को”

डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल, मध्यप्रदेश







