जब दिकु सामने आएगी

जब दिकु सामने आएगी

जब वो सामने आएगी, तो शायद सबसे पहले मैं एक पल के लिए ठहर जाऊंगा। उसे देखता रहूंगा, जैसे मेरी नज़रें उसे महसूस कर रही हों, और दिल में इतने अरसे से उठते भाव अचानक से उसकी मौजूदगी में सिमट जाएं। मेरे लफ़्ज़ शायद साथ न दें, पर मेरी आँखें उसे सब कह डालेंगी।

पहली नज़र में ही उसकी हर बात, हर याद एकदम से सामने आ जाएगी। वो मुस्कराएगी, और मैं बस उसे देखता रहूंगा, जैसे उसकी मुस्कान से ही मेरी रूह को चैन मिल गया हो। उसके हर हाव-भाव, हर हरकत में मुझे मेरी दुआओं का जवाब मिलेगा।

शायद मैं उससे कहूंगा, “तुम्हारे बिना ये सफर अधूरा था, और तुम्हें सामने पाकर ऐसा लग रहा है जैसे हर अधूरी कहानी आज मुकम्मल हो गई है। हर सुबह का इंतजार, हर शाम की तन्हाई—ये सब जैसे तुम्हारे लौटने का ही बहाना था। तुम्हारे बिना जो एहसास सिर्फ खामोशियों में बंधे थे, आज वो सब जैसे खुलकर कहने को तैयार हैं।”

फिर धीरे से शायद मैं बस इतना कह सकूं, “तुम्हारे बिना मैं अधूरा था, और तुम्हारे आने से मेरी दुनिया फिर से पूरी हो गई है।” उस पल में, सारी बातें, सारे शिकवे और सारा इंतजार जैसे खत्म हो जाएंगे, और बाकी रह जाएगी बस वो सुकून की खामोशी, जो सिर्फ उस के करीब होने से मिलती है।

कवि : प्रेम ठक्कर “दिकुप्रेमी”
सुरत, गुजरात

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