पान | Laghu Katha Paan
दोनों ही रोज तालाब से लगे पार्क मे रोज साथ-साथ आते और साथ-साथ ही जाते मगर आज क्या हुआ कि दोनों आऐ तो साथ-साथ मगर गए अलग-अलग। दुर्गेश जी के मन मे ये बात खटक रही थी कि हमेशा खुश रहने और कभी न झगड़ने वाले जोड़े मे आज ऐसा क्या हुआ जो वो इस तरह मुंह फुलाकर अलग-अलग चले गए वो पूछना तो चाहते थे मगर दोनों इतनी जल्दी अलग-अलग दिशा मे चले गए कि उन्हें पूछने का अवसर ही ना मिला।
घर आकर भी वो इसी विषय पर बहुत देर तक सोचते रहे। आज नियत समय पर वो फिर उसी जगह पहुंचे इस उत्सुकता के साथ कि आखिर हुआ क्या। इधर एक लंबी चुप्पी के बाद दोनों ने जब एक साथ बोला तो दोनों के होठों मे एक चौड़ी मुस्कान थी।
दोनों मे इसके बाद फिर बहुत देर तक बातें होती रही। दूर बैठे दुर्गेश जी ये सब बहुत देर से देख रहे थे, मगर समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर किस बात पर दोनों का अबोला हुआ और किस बात पर दोनों इतने खुश हैं कि जैसे कोई बहुत बड़ी खुशी मिल गई हो।
बहुत ढाढ़स के बाद भी जब वो अपने आप को रोंक नहीं पाऐ और जैसे ही कुछ पूछने को वो आगे बढ़ते हैं कि एक बच्चा एक पुड़िया जो की बहुत ही खूबसूरती के साथ कलात्मक तरीके से बनाई गई थी उनके हाॅथों मे देता हुआ उसी दोनों जोड़े की ओर इशारा करते हुए कहता है कि ये उन्होंने दिया है।
एक और सवाल दुर्गेश जी को घेर लेता है कि आखिर इसमें क्या है और उन्होंने इसे मुझे क्यों दिया और वो फिर बैठ जाते हैं और जल्द से जल्द पुड़िया खोलकर देखना चाहते हैं कि आखिर इसमें है क्या जो इतनी सुंदरता के साथ सजाई गई है और जैसे उन्हें कुछ याद आता है, अरे ऐसी पुड़िया तो एक बार उन्हें स्कूल के दिनों मे उनकी कक्षा की एक छात्रा कुसुम ने दिया था मुझे आज भी उसका नाम याद है तो क्या ये कुसुम है ?
दुर्गेश और कुसुम एक ही साथ एक ही कक्षा मे पढ़ते थे कुसुम दुर्गेश जी को पसंद करती थी मगर दुर्गेश जी की शादी सात साल की उम्र मे कर दी गई थी ऐसा जानते ही कुसुम ने ऐसी ही एक पुड़िया देकर उनसे हमेशा के लिए दूर हो गई थी, और आज फिर ऐसी ही पुड़िया उनके हाॅथ मे थी।
दुर्गेश जी आगे बढ़ते हैं और जैसे ही कुछ बोलना चाहते है कुसुम के साथ वाले लड़के ने कहा-कुसुम मुझे सबकुछ बता चुकी है हम इसी शहर मे रहने आए है और आपसे बात करना चाहते थे मगर कुसुम कल इसी बात से नाराज हो गई थी, मगर अब सब ठीक है, अगर आपको हमारी दोस्ती मंजूर है तो खोलिए पुड़िया हम साथ साथ पान खाते हैं। तीनों ठहाके लगा के हॅस पड़ते हैं।
रचना: आभा गुप्ता
इंदौर (म.प्र.)