शिव और शिवतत्व
सृष्टि की सबसे सुंदर अवधारणा ‘सत्यं, शिवं एवं सुन्दरम’ है। सत्य ही शिव है, शिव ही सुंदर है और सुंदर ही कल्याणकारी है। तभी तो ये पूरी कायनात इतनी खूबसूरत है।
शिव से जुड़ना अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि का साथ हो जाना। यह शिवतत्व ही है, जहाँ से सब कुछ आया है एवं सब कुछ कायम है, जिसमें सब समाहित हो जाता है, विलीन हो जाना है।
ऐसा कोई माध्यम ही नही है जिससे हम कभी भी बहिर्गमन कर सके। शिव विश्व रूप है, सम्पूर्ण ब्रम्हांड उनका रूप है, कल्याणकारी है और फिर भी वह निराकार है।
शिव का मूल गुण-आत्मा के लिए निर्धारित लक्ष्य जो स्वयं के बंधनों से छुटकारा पाना अर्थात शिव का स्वरुप प्राप्त करना। वास्तव में अगर हम शिव के भक्ति में जाना चाहते है, उसमें डूबना चाहते है, शिवभक्त बनना चाहते है तब तो हर दिन मौन में बैठने का समय निकाले, अपने मन को उनकी दिव्य उपस्थिति और ऊर्जा पर केंद्रित करें।
ध्यान के माध्यम से हम अपने और सम्पूर्ण ब्रम्हांड के बारे में गहरी समझ को प्राप्त कर सकते है, जो अंततः दिव्य अर्थात स्वयं शिव के साथ सम्बन्ध से जोड़ने में सहायक होगा। हम अगर देखें तो शिव को पुरूष और प्रकृति को सृष्टि का पर्याय माना गया है। शिव का व्यक्तित्व और स्वरूप समग्रता का प्रतीक है।
यह चरित्र मानवीय जीवन के उच्चतम आदर्शों की पराकाष्ठा को चित्रित करता है। जहाँ पर सम्यक दृष्टि व मित्रवत भाव की शिक्षा मिलती है। शिवतत्व तो वह गंगा है, जहाँ का स्पर्श जितना प्रगाढ़ होगा, उतना ही हमारा व्यक्तित्व, चरित्र सात्विक बुद्धि से युग्म समागम को प्राप्त होगा।
शिव स्वयं ही परस्पर विरोधी शक्तियों के बीच सामंजस्य बनाये रखतें हैं। शिव की अर्धनारीश्वर की कल्पना ही पुरूष और प्रकृति का सम्मिलित स्वरूप है। शिव गृहस्थ में होने के उपरांत भी वीतरागी है। अर्थात काम और संयम का सम्यक संतुलन शिव है। जहाँ भोग भी है और विराग भी है।
शक्ति भी है और विनयशीलता भी है। उनमें आसक्ति इतनी अधिक दृष्टिगत होती है कि अपनी पत्नी के यज्ञ वेदी में कूदकर जान देने पर उनके शव को लेकर तांडव करने लगते है और विरक्ति इतनी की पार्वती का शिव से विवाह की प्रेरणा जन्म लेने पर प्रयत्नशील काम को अपने पूरे शरीर मे भस्म करने के बाद पुनः ध्यानमय हो जाते है।
शिव का शाब्दिक अर्थ ही है-उच्चतर चेतना। हम यह भी कह सकते है कि शिव अर्थात शुद्ध, परम् पदार्थ या सृष्टि का आधार। सम्पूर्ण प्रकृति का आधार ही इन दो कारकों पर आधारित है। एक है शिव-जो शुद्ध है, अपरिवर्तशील चेतना है और दूसरी है शक्ति-अर्थात क्रिया के द्वारा अनन्त विकास, और जहाँ शिव और शक्ति दोनों विद्यमान हो जो साथ मे वार्ता करते हो तो वही ब्रम्हांड है और वही सृष्टि।
अब हम देखते है कि मनुष्य के तीन शरीर है-स्थूल, सूक्ष्म और कारण। इसमें जो बहिर्गमन कर गया वही शिवत्व को प्राप्त कर गया। स्थूल शरीर का परिचायक है, सूक्ष्म-मन का और कारण अहंकार का। अर्थात सत्व, रज और तम। ध्यान सत्व का प्रतिनिधित्व करता है और सक्रिय जीवन रज का और तम-आलस्य, नीरसता, सुस्ती और निष्क्रियता का।
अब इन तीनों शरीर को देखे तो शिवत्व को प्राप्त करना आसान नही है। शिव शुभ का प्रतीक है क्योंकि यह आत्मा के वास्तविक स्वरूप को दर्शाता है जो कि त्रिगुणों से अछूता है, पारलौकिक है और कभी-कभी तो बदलते हुए ब्रम्हांड से परे दिखलाई देता है।
शिव का वास्तविक अर्थ ही है सर्वोच्च चेतना, पवित्रता और एक है जागरूकता, जो इस जगत के सारे भ्रम से अप्रभावित है। शिव वह है जो अस्तित्व में नही है और तो और भौतिक रूप में भी अस्तित्वहीन है।।

डॉ पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल ( मप्र )
यह भी पढ़ें :-