स्त्री ही स्त्री की दुश्मन

स्त्री ही स्त्री की दुश्मन: क्यों?

आज जब हर ओर स्त्री सशक्तिकरण की बात हो रही है, तो यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या स्त्री को सशक्त बनने के लिए केवल पुरुषों से लड़ना पड़ता है? क्या उसके संघर्ष का केन्द्र पुरुष ही है?

यदि हम गहराई से सोचें, तो पाएँगे कि स्त्री के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा अक्सर कोई पुरुष नहीं, बल्कि दूसरी स्त्री ही बनती है। यह तथ्य जितना कड़वा है, उतना ही सत्य भी। “स्त्री ही स्त्री की दुश्मन” — यह धारणा यूँ ही नहीं बनी। हमारी सांस्कृतिक सोच, परंपराएं और खासकर मीडिया ने इस सोच को गहराई से पोषित किया है।

टेलीविजन धारावाहिकों और फिल्मों ने सास-बहू, देवरानी-जेठानी, ननद-भाभी जैसे संबंधों को प्रतिस्पर्धा और षड्यंत्र का रूप देकर प्रस्तुत किया है। इन रिश्तों में जहाँ आत्मीयता, सहानुभूति और सहयोग होना चाहिए, वहाँ ईर्ष्या, कलह और अविश्वास दिखाया जाता है।

परिणामस्वरूप समाज में यह मानसिकता गहराई से घर कर गई है कि स्त्री कभी स्त्री की सच्ची मित्र नहीं हो सकती।समाज चाहे जितना भी बदल गया हो, स्त्रियों के आपसी संबंधों में आज भी सहयोग की भावना की अपेक्षा प्रतिस्पर्धा अधिक देखने को मिलती है।

जब कोई स्त्री अपने वैवाहिक जीवन से असंतुष्ट होकर तलाक जैसे कठिन निर्णय पर पहुँचती है, तब उसे सहारा देने की बजाय उसी समाज की स्त्रियाँ उसे दोषी ठहराने में लग जाती हैं — “शायद लड़की ने ही घर नहीं संभाला होगा”, “बहुत ज़्यादा आज़ादी चाहिए थी इसे”, जैसे कटाक्ष उसी वर्ग की स्त्रियाँ करती हैं, जो कभी स्वयं भी उसी पीड़ा से गुज़र चुकी होती हैं।करियर के क्षेत्र में भी यही स्थिति है।

जब कोई स्त्री करियर बनाने की आकांक्षा में घर से बाहर निकलती है, तो उसकी अधूरी पारिवारिक जिम्मेदारियों का ताना उसी की पड़ोसिनें या रिश्तेदार स्त्रियाँ देती हैं। वहीं, यदि कोई स्त्री घरेलू ज़िम्मेदारियों में पूरी तरह डूबकर स्वयं की देखभाल नहीं कर पाती, तो उसे उपेक्षित, असंवेदनशील और ‘बेचारी’ कहा जाता है।

यदि वह ऑफिस में सज-धज कर जाती है तो उसे चरित्रहीन समझा जाता है, और यदि वह सादगी में रहे तो उसे महत्वहीन बताया जाता है। दुखद यह है कि इस प्रकार के निर्णय देने वाले पुरुष नहीं, बल्कि स्त्रियाँ ही होती हैं।

जब कोई स्त्री समाज में ऊँचाई पर पहुँचती है तो सबसे पहले स्त्रियाँ ही सवाल खड़े करती हैं — “उसने यह कैसे पाया?”, “क्या वह सच में इतनी योग्य थी?”, “जरूर किसी का सहारा रहा होगा!”।

यह सोच न केवल उस स्त्री की मेहनत पर सवाल उठाती है, बल्कि बाकी स्त्रियों को भी असुरक्षित महसूस कराती है। यह प्रवृत्ति स्त्री को आत्मविश्वास की जगह अपराधबोध से भर देती है।यह बात भी उतनी ही सच है कि जब स्त्रियाँ एकजुट होती हैं, तो इतिहास रच देती हैं।

लेकिन यह एकता तभी संभव है जब उनके भीतर से परस्पर ईर्ष्या, अविश्वास और प्रतिस्पर्धा को हटाया जाए। ज़रूरत इस बात की है कि स्त्रियाँ अपने संघर्ष को एक-दूसरे के दृष्टिकोण से समझें, और जानें कि उनकी असली प्रतिद्वंद्वी कोई पुरुष नहीं, बल्कि वह मानसिकता है जो उन्हें एक-दूसरे से अलग करती है।

यदि एक बहू अपनी सास में माँ का स्वरूप देखे, देवरानी-जेठानी एक-दूसरे को प्रतिद्वंद्वी न मानकर साझेदार बनें, ननद और भाभी एक-दूसरे की सलाहकार और मित्र बनें, तो स्त्रियों को अकेले संघर्ष नहीं करना पड़ेगा।

वे एक-दूसरे की भावनाओं को समझें, अनुभव बाँटें, और मुश्किल समय में एक-दूसरे का सहारा बनें — यही सच्चा सशक्तिकरण होगा।, यदि ऑफिस की दो महिलाएँ एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्वी नहीं बल्कि सहकर्मी बनें, तो स्त्री सशक्तिकरण एक स्वप्न नहीं, एक यथार्थ बन जाएगा।

स्त्रियाँ जब एक-दूसरे का हाथ पकड़कर आगे बढ़ेंगी, तो न केवल वे स्वयं सशक्त बनेंगी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी आदर्श बनेंगी। अतः, स्त्री का वास्तविक संघर्ष पुरुष से नहीं, उस जड़ मानसिकता से है जो उसे स्त्रियों के विरुद्ध खड़ा करती है।

जब स्त्रियाँ एक-दूसरे की दुश्मन नहीं, बल्कि सहयोगी बनेंगी — तभी सशक्तिकरण की असली परिभाषा साकार होगी। कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली स्त्रियाँ ही समाज की असली शक्ति बन सकती हैं। इसलिए समय आ गया है कि हम रिश्तों को प्रतिस्पर्धा की नहीं, सहयोग और समझ की नज़र से देखें, और मिलकर एक ऐसा समाज बनाएं जहाँ स्त्रियाँ एक-दूसरे की ताकत बनें, कमजोरी नहीं।

गरिमा भाटी “गौरी”
सहायक आचार्या, रावल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन,
फ़रीदाबाद, हरियाणा।

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