Kavita maa ko shish navate hain

मां को शीश नवाते हैं | Kavita maa ko shish navate hain

मां को शीश नवाते हैं ( Maa ko shish navate hain )   जिस मिट्टी की मूरति को, गढ़ गढ़ हमी बनाते हैं   शाम सुबह भूखे प्यासे, उसको शीश झुकाते हैं   सजा धजा कर खुद सुंदर, मां का रूप बताते हैं   बिन देखे ही बिन जाने, नौ नौ रूप दिखाते है  …