
मां को शीश नवाते हैं
( Maa ko shish navate hain )
जिस मिट्टी की मूरति को,
गढ़ गढ़ हमी बनाते हैं
शाम सुबह भूखे प्यासे,
उसको शीश झुकाते हैं
सजा धजा कर खुद सुंदर,
मां का रूप बताते हैं
बिन देखे ही बिन जाने,
नौ नौ रूप दिखाते है
यह कैसा है भक्ति भाव,
आओ हम बतलाते हैं
धरती जैसा धैर्य धरे,
मां में धारण करवाते है
इसलिए मिट्टी की मूरति,
गढ़ गढ़ हमी बनाते हैं
शाम सुबह भूखे प्यासे,
उसको शीश झुकाते हैं
जग जननी की जग सुंदर,
जगमग जगत सुहाते हैं
हे अम्बे हम इसीलिए,
तुमको खूब सजाते हैं
आदि शक्ति नौ रूपों में,
निधि रस मन दर्शाते हैं
नये नये नौ रूपों को,
नौ दिन रात मनाते हैं
नारी शक्ति को भक्ति में,
भर भर भाव लुटाते हैं
थाल सजाकर पुष्पों से,
नत मस्तक हो जाते हैं।
हे मां दुर्गे आदि शक्ति
हम तेरा गुण गाते हैं
मन मंदिर में रख अपने
मां को शीश नवाते हैं।