दिव्यांश मौर्य की कविताएँ | Divyansh Maurya Poetry

मैं कविताएं तब लिखता हूं।

मैं कविताएं तब लिखता हूं,
जब मेरा मन रोने लगता।
जीवन के दुःख दर्दों को जब ,
मन अश्रु से धोने लगता।
मैं कविताएं तब लिखता हूं,
जब मेरा मन रोने लगता।

बोल नहीं जब मैं कुछ पाता,
पर मन ही मन हूं चिल्लाता।
जब मन भावुक हो जाता है,
मन का अंकुश को जाता है।
तलवारें जब क्षीण पड़ी हो,
मगर साथ में कलम खड़ी हो।
माताओं का चेहरा जब भी,
मुझको रुखा सा दिखता है,
मुरझाए बच्चों का चेहरा
जब कुछ भूखा सा दिखता है।
पांचाली का अपमान देखकर,
भीष्म जहां चुप रह जाते हैं।
मेरे कलम वहां चीख कर,
सारा दुखड़ा कह जाते हैं।
देश का जिम्मेदार कोई जब
भूल वतन को सोने लगता।
मैं कविताएं तब लिखता हूं,
जब मेरा मन रोने लगता।

जब धरती मां रोने लगती,
धीरज अपना खोने लगती।
बस्ती जब मेरी जल जाती,
कुछ बातें मन को खल जाती।

सत्यमेव जयते पर जब भी,
कोई प्रश्न उठा देता है।
इंसाफो की मर्यादा को,
जब कोई ठुकरा देता है।
कोई ऋषि पाप का बोझा
अपने सिर पर ढोने लगता।
मैं कविताएं तब लिखता हूं,
जब मेरा मन रोने लगता।

दीन दुखी की देख निराशा,
अपराधों की कुछ कुत्सित भाषा।
सत्य की भूमि देख के बंजर,
मैं ग्रंथों को बोने लगता।
मैं कविताएं तब लिखता हूं,
जब मेरा मन रोने लगता।

 

वीर सुभाष

 

जब -जब धरती अकुलाती है,
अपने बेटों को बुलाती है।
वे वीर कहां से आते हैं?
फिर लौट कहां को जाते हैं?
ये बात समझ ना पाता हूं,
लेकिन एक बात बताता हूं।
एक वीर धरा पर आया था,
अद्भुत शक्ति वो लाया था।
बुद्धि बल का स्वामी था वो,
सतपथ का अनुगामी था वो।
बचपन से ही थी तीक्ष्ण बुद्धि,
करता रहता था आत्म शुद्धि।
जो कोई नहीं कर पाया था,
उसने करके दिखलाया था।
आई .सी .एस की परीक्षा में,
चौथा स्थान ले आया था।
दुनिया थी सारी दंग देख,
भारत के उगते पंख देख।
अंग्रेज बड़े हैरान हुए,
मन ही मन कुछ परेशान हुए।
पर नेताजी थे नेताजी,
ना उनको ये सब भाया था।
भारत माता की करुणा को देख,
अंतर्मन भर आया था।
तब वीर ने ये संकल्प लिया,
माता की बेड़ी तोडूंगा।
टूटे भारत के सपनों को,
एक-एक करके मैं जोड़ूंगा।
अपनी एक फौजी बना करके,
भीषण युद्ध ठना करके।
अंग्रेजों को हैरान किया,
भारत मां की जयगान किया।
भीषण स्वर में ललकार कहा,
मानो वीर रस बन हवा बहा।
दो खून तुम्हें दूं आजादी,
कर दो गोरों की बर्बादी।
माता का कर्ज उतारो अब,
नरसिंह रूप तुम धारो अब।
अंग्रेज थराथर कापे थे ,
अब शेर धरा पर जागे थे।
पर किस्मत को ना भाया वो,
तकदीर से धोखा खाया वो।
दिल्ली चलने का नारा दे ,
वायुयान से चला वीर।
चल रहा वीर का वायुयान,
घनघोर तिमिर का सीना चीर।
पर कहीं राह में खोया वो,
सबको जगा खुद सोया वो।
ना लौट कभी फिर आया था,
लगता हमसे गुस्साया था।
हे वीर हमें तुम माफ करो,
वसुधा का आंचल साफ करो।
फिर लौट धरा पर आओ तुम,
हमको ना और रुलाओ तुम।
भारत मां के हो तुम्हीं आश,
जय जय सुभाष, जय जय सुभाष।

 

बेरोजगार भाई

 

देखो रक्षाबंधन आया,
बहनों का चेहरा मुस्काया।
हर घर में खुशियां छाई है,
चुन -चुन कर राखी आई है।
पर मैंने कुछ और भी देखा,
हाय गरीबी की वो रेखा!
मिटती नहीं मिटाए जो है,
दुखड़ा सदा सुनाएं जो है।
उसी का मारा एक भाई है,
बहने उसकी भी आई हैं।
राखी थोड़ी सस्ती है पर,
उसमें भी है प्यार भरा।
उस प्यारे से राखी में,
सारे सुख का सार भरा।
पर इन धागों की कीमत को,
कैसे भाई चुकाएगा?
अभी नौकरी लगी नहीं है,
तोहफा कहां से लाएगा?
किए थे उसने वादे जो भी,
कैसे उन्हें निभाएगा?
बेचारी बहनों को आखिर,
भाई क्या दे पाएगा?
पर बहनों ने कुछ ना मांगा,
बड़े प्यार से धागा बांधा।
बहने सब कुछ जाना करती,
देख के चेहरा मन को पढ़ती।
कहा भाई बस इतना कर दो,
आज तो थोड़ा सा मुस्कादो।
तेरा मुस्काता चेहरा ही
सबसे ज्यादा हमको भाया।
देखो रक्षाबंधन आया,
देखो रक्षाबंधन आया।

 

दिव्यांश मौर्य

बी.एस.सी द्वितीय वर्ष

 प्रयागराज ( उत्तर प्रदेश )

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मैं हूं प्रयागराज | Prayagraj

 

 

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