मुहब्बत में वफ़ा-परवर खड़े हैं
मुहब्बत में वफ़ा-परवर खड़े हैं
मुहब्बत में वफ़ा-परवर खड़े हैं
लगा के ताज को ठोकर खड़े हैं
न थामा हाथ भी बढ़कर किसी ने
यूँ तन्हा हम शिकस्ता-तर खड़े हैं
करूँ कैसे तुम्हारा मैं नज़ारा
ज़माने में सौ दीदा-वर खड़े हैं
शजर आता न कोई भी नज़र अब
बशर सब धूप में थक -कर खड़े हैं
मिरे ज़हनो गुमाँ में आज तक भी
तिरी यादों के वो लश्कर खड़े हैं
तमाशा देखने मुफ़लिस का यारो
ज़मी क्या सात ये अम्बर खड़े हैं
सदा आई थी “मीना” जिसके घर से
अभी तक हम उसी दर पर खड़े हैं
कवियत्री: मीना भट्ट सिद्धार्थ
( जबलपुर )
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