मैं लिखता रहा अश्क धोते रहे
मैं लिखता रहा अश्क धोते रहे
मैं लिखता रहा अश्क धोते रहे।
सफे किस्मत के खुद पे रोते रहे।
हम सुनाते रहे दास्तां दिल की अपनी।
रात सारी सिर कंधे पे रख वो सोते रहे।
उन्हें लगता था हम जिंदा है पर थे नहीं।
अपनी ही लाश हम कंधों पर ढोते रहे।
गंवाया नहीं आंखों से निकला अश्क।
उठा के उसे इश्क के धागे में पिरोते रहे ।
आंएगे और हाल पूछेंगे कभी तो वो।
आश इसी में हम ख़ाव संजोते रहे।
सुदेश दीक्षित
बैजनाथ कांगड़ा
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