नई सदी की हिन्दी कविता
साहित्य मानवीय चेतना की अभिव्यक्ति है और चेतना अनुभूति और चिंतन की सफलता के समन्वित आधार के साथ ही अपना रूप ग्रहण करती है।
अनुभूति ह्रदय की संवेदनशीलता से सम्बंध स्थापित करती है एवं चिंतन वस्तुतत्व के स्थिति बोध के लिए उद्वेलित होने वाली शंकाओं, जिज्ञासाओं तथा प्रश्नों के समाधानों का दूसरा आयाम है। मानव जीवन के विकास क्रम में ह्रदय की संवेदनशीलता में तत्वों की क्रियाशीलता को प्रथमतः देखा जाता है।
अनुभूति और चिंतन चेतना के ये दो आयाम अपने अभिव्यक्तिगत शैली को स्थापित कर लेते है। ह्रदय की संवेदनशील वृत्तियाँ विशिष्ट छंद, स्वर, लय, गति, प्रवाह एवं ध्वनि के धरातल पर मूर्त होकर पद रचना में लयबद्धता लाते है।
शब्दों में भी नाद-सौंदर्य जा प्रादुर्भाव हो जाता है। वे कभी कोमलता, मधुरता, सरलता तो कभी कठोरता में भी थिरक उठते है, यही सवेदनशीलता वृत्ति अभिव्यक्तिगत शैली में भी ‘पद्य’ अर्थात कविता कही जाती है।
मानवीय इतिहास के प्रथम चरण में मानव ह्रदय संवेदनात्मक मूलक वृत्ति प्रधान्य लेकर चलता है। उसी के फलस्वरूप अनुभूति प्रधान चेतना पद्यात्मक शैली में ही अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है। कविता का सम्बंध संवेदना, भाव, राग-विराग एवं कल्पना लोक से है। यही कारण है कि कविता को साहित्य के प्रथम स्थान पर देखा जाता है।
हम अगर आदिकाल से अब तक भारतीय मूल्यों पर एक दृष्टि डालें तो आदिकाल अर्थात वीरगाथा काल की एक दीर्घ परम्परा के बीच प्रथम डेढ़-सौ वर्ष के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नही होता है।
धर्म, नीति, श्रंगार वीर इस प्रकार की कविताएँ दोहों से मिलती है। वह भी तब जब कि राज्याश्रित कवि और चारण जिस प्रकार से राजाओं के वीरता के बखान या श्रंगारिक कविता करते थे, जिसमें मूल्यों का लोकजीवन से कोई सरोकार ही नही था। ऐसा कुछ नही था जिससे मानवीय चेतना का उद्दीपन हुआ हो।
इस प्रकार के कवियों द्वारा रचित ‘रासो’ग्रन्थों में ‘वीरत्व’ और ”प्रेम’ की अभिव्यंजना ही स्वीकार की जाती थी। काव्य की इसी परम्परा को स्वीकार करके चलने वाले कवि सिर्फ आश्रयदाताओं के चरित्रों को व्यापक और अमरत्व दोनों चीजें प्रदान करना चाहते थे। वे अपनी चाटुकारिता को महत्व देने में लगे थे, उनका प्रजा या लोक से कोई सम्बन्ध ही नही था। फिर वे कैसे भारतीय मूल्यों या परम्परा का निर्वहन करते।
इसलिए जैसी परिस्थियां निर्मित होती है वैसा ही लोकजीवन पर प्रभाव पड़ता है। उपर्युक्त परिस्थितियों पर दृष्टि डाली जाए तब प्रश्न ही नही उठता कि जनसमुदाय में चेतना का प्रवाह फूटे क्योंकि साहित्य ही एक ऐसा अनिवार्य तत्व है जो युग चेतना को प्रवाहित कर सकता है।
अभिप्राय यह है कि जीवन मूल्य किसी भी काव्य में उपजे विश्वासों, अभिरुचियों और मूल्यों का अभियंता और उसका प्रवाहक स्वरूप है। अतः आदिकाल में यह नही कहा जा सकता कि चेतना जगी हो, उस समय कवियों की अपनी रचनाओं की संदिग्धता के लिए विशेष रूप से उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
भक्तिकाल में पद्य साहित्य ने अपनी उपादेयता को सिद्ध किया परन्तु वह भी इष्ट देवों के आदर्श चरित्र की प्रतिष्ठा को ही कायम रख सका, उसमें आराध्य के प्रति आत्म निवेदन था।
लीलामय भगवान के आनन्द-उद्भावों का सगुण लीला के रूप में गान के लिए भी यह काल सर्वथा उपयुक्त रहा है। तुलसी ने अपने आराध्य को लोक नायक के रूप में प्रतिष्ठित किया, किन्तु सिर्फ एक चरित्र के माध्यम से जीवन मूल्यों को परखा जा सकता है, उसमें जीवन के विविध रूपों का समावेश आवश्यक है।
मानवीय जीवन मे समर्पण का भाव आवश्यक है। विभीषण द्वारा अपने लोक रक्षा के लिये राम की शरण मे जाकर रावण जैसे शोषक अत्याचारी का वध करवाया जाना। यह विभीषण के जन-जीवन की नाइट5 गतिविधि का ही प्रमाण है। इसी काल मे सूरदास ने भी चैतन्य प्रभु कृष्ण को लोकरंजन के स्वरूप में चरितार्थ किया।
कृष्ण के जीवन दर्शन में भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों का समावेश है। भक्ति काव्य जहाँ उच्चतम कोटि के काव्य का दर्शन करवाता है, वहीं वह स्वयं काव्य धाराओं के माध्यम से उच्चतम धर्म को भी स्थापित करता है। उसकी आत्मा भक्ति है, उसका जीवन धर्म-स्त्रोत रस है, उसका शरीर मानवी है।
तुलसी, सूर, विद्यपति, रसखान आदि का काव्य अपनी तन्मयता, काव्यत्व और प्रभाव की दृष्टि से संसार के श्रेष्ठतर काव्यों की समता में बिना सिर झुकाएं खड़ा रह सकता है।
क्योंकि उन सबका मूल-धर्म ही मानवता है। उसमें मानव के लिए स्नेह का सागर लहरें जरूर ले रहा है पर फिर भी जीवन-मूल्यों को टटोलना पड़ता है। भारतीय परम्परा विद्यमान है, किन्तु मूल्य अधूरे अवश्य प्रतीत होते है, क्योंकि जन-जीवन की नैतिक गतिविधि से इसका सम्बन्ध भी नही के बराबर था।
हाँ, कबीर, रैदास जीवन मूल्यों को खोजने में समर्थ कहे जा सकते है। उन्होंने समग्र चेतना में एक अलख को प्रज्वलित करने का प्रयास किया है।
ये ऐसे कवि है जो वर्गहीन समाज की स्थापना कर सबके लिए मुक्ति चाहते थे। इसी कारण सगुण का भी विरोध किया, क्योंकि सगुण को स्वीकार करने का अर्थ ही उस ईश्वर के रूप में स्वीकार करना था, जो उच्चवर्गों के स्वार्थों के समर्थक है।
तथ्य वही है जहाँ तुलसी और सूर जैसे कवियों ने अपने आदर्श के कारण बल, शक्ति और उत्साह प्रदान किया है, वहीं कबीर और रैदास जीवन की प्रधान समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट कर चिंतन की प्रेरणा देते है। फिर भी प्रेम में जब तक श्रद्धा का योग नही होता, तब तक वह भक्ति का रूप धारण नही कर सकता।
दैन्य भावना के प्रति प्रेम भावना तो है परंतु श्रद्धा नही। इसलिए कबीर और रैदास सार्थक है। उन्होंने बाह्य संसार से परिचय कराया। सीधी ह्रदय से निकलने वाली कविता सीधी ह्रदय पर आघात करती है।
उसमें अनुभूति की तीव्रता होती है। यही तीव्रता या अनुभूति इस काल के कवियों में है क्योंकि उनके ह्रदय में सच्चाई थी और आत्मा में बल था। यही कारण था कि उनकी वाणी में इतनी शक्ति समाहित हो गई कि यही वाणी की शक्ति ही काव्यगत होकर सरसता में निरूपण होते हुए लोक मानस के ह्रदय को द्रवीभूत करती है।
रीतिकालीन साहित्य भी जीवन की रंगीनियों में ही पोषी6 एवं पल्लवित हुआ। वहां भी कृत्रिमता, कल्पना, चमत्कार, अतिश्योक्ति तथा वासनात्मक श्रंगारिक काव्य ही लिखा गया था। इस काल मे प्रेम ही सर्वोपरि माना गया है।
उनका प्रेम में ही अधिक विश्वास था, चाहे संयोग हो या वियोग। वे प्रेम की दोनों ज्वालाओं में तपकर ही अपनी अभिव्यक्ति को उज्ज्वल एवं निर्दोष बनाना चाहते थे। ऐसा प्रेम लौकिक बन्धनों को भी स्वीकार नही करता। यहाँ मैं इतना जरूर कहना चाहूंगी कि प्रेम सर्वत्र ही लौकिक ही रहता है, न कि अलौकिक।
भारत की साहित्यिक आत्मा जो रीतिकालीन सीमित और रूढ़िवादी सामाजिक जीवन के कारण निष्प्राण हो रही थी, आधुनिक काल मे इस संस्कृति का उदय और संघर्ष जी उठा।
मानवीय मनीषियों का स्वधर्म भी इसी परिप्रेक्ष्य में होता है कि सामान्य जीवन को दिशा प्रदान करने के लिए निर्विकार रूप से उनके जीवन-मूल्यों का अन्वेषण करें साथ ही भारतीय परम्पराओं में ही मूल्यों का दिशा निर्देशन करे।
समकालीन कविताओं में जीवन को नया संस्कार देने की उत्कंट कामना है। वह उद्भूत ऊर्जा से दीप्तिमान और तरल सम्वेदनाओं से सिक्त है। स्वत्रंतता प्राप्ति के बीच जो जीवन मूल्य हमे प्रेरणा एवं शक्ति प्रदान कर रहे थे, जिनका आधार ही मानवीय चरित्र का विकास था, वही काव्य आज भी जीवन-मूल्यों को नई पीढ़ी को सौपने का प्रयत्न कर रहा है।
मानव के ऊपर पड़े इस यांत्रिक आवरण को हटाने के लिए व्यापक मानवीय मूल्यों के प्रगति विश्वासों को उत्पन्न करने के लिये हमारी जीवन्त परम्परा और सांस्कृतिक मूल्यों की पुनः स्थापना करनी होगी।
मानवीय जीवन मूल्यों और भारतीय परम्परा की दृष्टि में समकालीन कविता संपृक्त रही है। युगीन जीवन और परिवर्तन के संग नैतिक चेतना की दृष्टि से सम्पन्न है। जीवन के विकास और प्रवाह के साथ इसमें परिवर्तन दिखता है।
जीवन की परंपरागत मान-मूल्य आधुनिक जीवन गति न दे पाने की स्थिति में अपनी सार्थकता खोने लगते है। बल्कि विघटित भी हो जाते है, लेकिन नई कविता यें कहीं न कहीं मानवीय जीवन मूल्य में परिवर्तित समय और समाज को अर्थ अवश्य प्रदान करते है।
मानव मूल्य, संस्कृति और समाज से उदभूत होकर मानव को शील, शक्ति, शिवत्व और सौंदर्य भी प्रदान करते है, जो मानव जीवन को ऊर्ध्वोन्मुखी बनाते है, जिससे मनुष्य अपनी स्वाभाविक वृत्तियाँ समझकर कर्तव्य के पथ पर अग्रसर होता है।
दृष्टव्य है कि जब किसी समाज का पतन होने लगता है, अथवा हो जाता है इस स्थिति में साहित्य अपना संबल लेकर उन्नयन और उत्कर्ष का आधार बन पथ प्रदर्शन करता है, लेकिन जब किसी साहित्य का पतन होने लगता है, उस समय सामाजिक उत्कृष्ट मनीषा उसे अद्य: पतन से बचाने में सहायक होने लगती है।
श्रेष्ठ रचनाधर्मिता का उद्देश्य और औचित्य जीवन मूल्य और परम्परायें दोनों एकाकार हो सकते है, क्योंकि इसमें भविष्य का रूप दृष्टव्य हो रहा है, वस्तु और व्यक्ति के समन्वय में कवि प्रयोग आज इस दिशा में अग्रसर होने का संकेत दे रहे हैं।।
डॉ पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल ( मप्र )
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