कवयित्री श्रीमती बसन्ती दीपशिखा

जीवन का अनसुना अध्याय: ‘एक स्त्री का अंतहीन प्रेम और संघर्ष’

कुछ यादें होती हैं, जो जीवन की किताब में अमिट स्याही से लिखी जाती हैं। वे मिटती नहीं, समय के थपेड़ों से धुंधली भी नहीं होतीं, बल्कि हर बीतते दिन के साथ और गहरी होती जाती हैं। यह कहानी नहीं, यह एक स्त्री के अंतर्मन का वह अध्याय है, जिसमें प्रेम, पीड़ा, संघर्ष और जिजीविषा के रंग घुले हुए हैं।

वह जो मेरा सब कुछ था…

संसार में जबसे कदम रखा, तबसे रिश्तों की तलाश रही। जन्म लेने के साथ ही पिता का साया छिन गया, माँ का प्यार अधूरा रह गया, भाई-बहन अपने स्वार्थ की दुनिया में गुम हो गए। जिन रिश्तों को सहारा बनना था, उन्होंने ही खालीपन सौंप दिया। लेकिन इस सूनी दुनिया में एक रिश्ता ऐसा मिला, जिसने हर खालीपन को भर दिया, जिसने न केवल हाथ थामा बल्कि आत्मा तक को संबल दिया— मेरे पति, सुरेंद्र।

वह सिर्फ मेरे जीवनसाथी नहीं थे, वह मेरे हर रिश्ते की पूर्णता थे। वह मेरे पिता थे, जिन्होंने मेरी रक्षा की, वह मेरे भाई थे, जिन्होंने हर मुश्किल में साथ दिया, वह मेरे मित्र थे, जिनके कंधे पर सिर रखकर मैं अपने दर्द को कह सकती थी। और सबसे बढ़कर, वह मेरे मन के सबसे करीब थे, जो बिना कहे भी मेरी हर भावना को समझते थे।

लेकिन जीवन का क्रूर सत्य यही है कि जो सबसे प्रिय होता है, वही सबसे पहले छिन जाता है। दो साल पहले जब उन्हें खो दिया, तब केवल एक इंसान नहीं गया था, बल्कि मेरी दुनिया उजड़ गई थी। एक ऐसा सन्नाटा, जो किसी कोने में नहीं, बल्कि मेरे पूरे अस्तित्व में पसर गया।

तस्वीरें जो दिल को डराती हैं…

उनकी तस्वीरें देखना मेरे लिए उतना ही कठिन है, जितना किसी टूटे हुए शीशे में अपना प्रतिबिंब देखना। डरती हूँ कि कहीं खुद को पूरी तरह न खो दूँ, कहीं मन का संतुलन न डगमगा जाए। इसलिए मैंने उनकी तस्वीरों को छुपा दिया है, लेकिन क्या सच में यादें छुपाई जा सकती हैं?

उनकी मुस्कान अब भी मेरी आँखों के सामने झिलमिलाती है। उनकी आवाज अब भी मेरे कानों में गूंजती है। उनका प्रेम अब भी मेरे हृदय में जीवित है। यही मेरा साहस है, यही मेरी उम्मीद है। और यही उम्मीद मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।

आंसुओं से जन्मी कविताएँ

जब मन भारी होता है, जब दर्द हद से ज्यादा गहरा हो जाता है, तब शब्द मेरी पीड़ा का रूप लेकर कागज़ पर बहने लगते हैं। यह केवल कविताएँ नहीं होतीं, यह मेरे आँसुओं की मूक भाषा होती है। यही मेरा संबल है, यही मेरी शक्ति है।

मेरे शब्द मेरे साथ चलते हैं, मेरे भीतर उमड़ते भावनाओं का साक्षात्कार करवाते हैं। मैं अपने प्रेम को, अपने दर्द को, अपनी तड़प को यूँ ही व्यर्थ नहीं जाने देना चाहती। यही कारण है कि मैं अपनी यादों को, अपने आँसुओं को, अपनी बेचैनी को साहित्य का रूप देकर सहेज रही हूँ।

मुझे मरना नहीं, जीना है…

कई बार लगता है कि जीवन अब शेष नहीं, कि मेरा अस्तित्व सिर्फ एक बोझ बन चुका है। लेकिन नहीं, मुझे जीना है। मौत को मुझे पीछे धकेलना है। मेरा जीवन अब सिर्फ मेरा नहीं, यह मेरी बेटी का भी है। जब तक वह अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाती, तब तक मुझे दुनिया के हर दर्द से लड़ना है।

जिंदगी कठिन है, लेकिन इसे जीना जरूरी है। मैं जानती हूँ कि यह आसान नहीं, लेकिन मैंने ठान लिया है कि मैं अपनी बेटी के लिए, अपने साहित्य के लिए, अपने अस्तित्व के लिए जीवित रहूँगी। मेरा रोना हिमालय की चोटी से गूंजने वाली प्रतिध्वनि की तरह होगा—जो दुनिया तक पहुँचेगी, लेकिन मेरा संकल्प इस संसार को मेरी ताकत दिखाएगा।

अंत में…

मैंने इस संसार से कुछ नहीं माँगा था, केवल थोड़ा-सा प्रेम, थोड़ा-सा अपनापन। लेकिन नियति ने मुझे दर्द दिया, तन्हाई दी। फिर भी, मैंने हार नहीं मानी। मैं अपने शब्दों को, अपनी भावनाओं को, अपने साहित्य को अपनी ताकत बना रही हूँ। यही मेरा प्रेम है, यही मेरी श्रद्धांजलि है, यही मेरी पहचान है।

मैं यह आलेख अपने पति सुरेंद्र की स्मृति को समर्पित करती हूँ। वे मेरे साथ नहीं हैं, लेकिन मेरा हर शब्द, मेरी हर साँस, मेरा हर प्रयास उन्हीं की छाया में है। उनकी यादों के सहारे, मैं जिंदा हूँ।

श्रीमती बसन्ती “दीपशिखा”

हैदराबाद – वाराणसी, भारत।

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