Baantakar

बांटकर | Baantakar

बांटकर

( Baantakar )

 

बंजर हुई धरा सत्य की

 चमन झूठ का हरशायाहै

रिश्ते नाते सब दूर हुए जैसे

 कपट  छल ने मन भरमाया है

 अपने ही अपनों में लगी है बाजी

जीत हार में सब है जूझ रहे

  खोकर  प्रेम भाव हृदय का

 अपने ही अपनों को है गिर रहे

 घर के घर में ही दीवार उठी है

 मां की ममता सिहर उठी है

 पाला रहकर जिसने साथ पांच

 आज रहें संग किसके यही ठनी है

हाल यही रहा जब घर भीतर का

तब बाहर से नाता कैसा होगा

 मानव से मानव का रिश्ता ही रहा नहीं

मानवता से रिश्ता कैसा होगा

 धरती ,अंबर ,सागर सब बांट लिए

बांटे मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे

कर सबका बंटवारा अब नर

 तुम घूम रहे क्यों सबके द्वारे

मोहन तिवारी

( मुंबई )

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