भारत में पंचायती राज व्यवस्था
भारत में पंचायती राज व्यवस्था

निबंध : भारत में पंचायती राज व्यवस्था

( Bharat Mein Panchayati Raj vyavastha : Essay In Hindi )

 

भूमिका (Introduction) : –

भारत एक कृषि प्रधान देश है। ऐसा समझा जाता है कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। प्राचीन काल से ही भारत में ग्रामीण संस्कृति रही हैं।

ग्राम व्यवस्था में ग्राम पंचायतों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। यह प्राचीन काल में ही नहीं बल्कि वर्तमान में भी यह है।

यह पंचायतें कृषि, व्यापार और उद्योग के विकास के ध्यान में रखकर बनाई गई होती थी। सामान्य प्रशासन में उनकी महत्वपूर्ण भागीदारी रहती थी।

ब्रिटिश उपनिवेश काल को छोड़ दिया जाए तो भारत में सभी समय में पंचायती व्यवस्था की स्थिति सम्मानजनक ही थी।

वैदिक काल मे पंचायत व्यवस्था ( Panchayat system in Vedic period ) : –

वैदिक काल में पंचायती राज व्यवस्था की स्थिति इतनी जोरदार थी कि राजा भी पंचायत में जाने से डरता था कि कहीं उसे पदच्युत न कर दे।

इस तरह से मालूम पड़ता है कि पंचायत के निर्णय कितने प्रभावी और बाध्यकारी थे। उत्तर वैदिक काल के बाद बौद्ध काल में भी पंचायतें ग्राम संगठन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रही।

ग्राम सभा के कार्य में न्याय, गांव की आंतरिक सुरक्षा, सरकारी मकान, घाट, मंदिर, तालाब, कुएं बनवाना, कर वसूली करना, शिक्षा व्यवस्था करना जैसे कार्य शामिल होते थे।

 मध्यकाल में पंचायत व्यवस्था ( Panchayat system in the medieval period ) :-

कालांतर में मध्यकाल में मुस्लिम शासकों ने इसे स्वशासन की इकाई के रूप में स्थानीय स्तर पर मान्यता दी और स्थानीय स्तर पर भी न्याय का अधिकारी नियुक्त किये गए।

ब्रिटिश काल मे पंचायत व्यवस्था का ह्रास ( Decline of Panchayat system in the British period ) :-

भारत में पंचायती राज व्यवस्था कचरा ब्रिटिश उपनिवेश के समय हुआ। 1773 में वारेन हेस्टिंग के शासनकाल में रेगुलेटिंग एक्ट जब पारित किया गया तभी से पंचायती राजव्यवस्था के अधिकार धीरे-धीरे क्षीण होने शुरू हो गए।

गांवों में मालगुजारी वसूली के लिए जमीदार नियुक्त कर दिए गए, और इनका पंचायतों से कोई भी लेना देना नहीं होता था। यह सिर्फ ब्रिटिश सरकार के प्रति जिम्मेदार होते थे।

ब्रिटिश सरकार ने दीवान और फौजदारी न्यायालय की स्थापना की, जिसके बाद पंचायतों का कार्यक्षेत्र सिमट गया।

स्वतंत्रता के बाद से अब तक पंचायती राज ( Panchayati Raj since independence ) :

राष्ट्र के विकास में पंचायत के महत्व को ध्यान में रख कर स्वतंत्रता के बाद देश के नीति निर्माताओं ने इस पर ध्यान दिया। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी इसके प्रबल पक्षधर रहे थे।

उनका कहना था कि गांव के लोगों को अधिकार सौपना चाहिए। इस मकसद से उन्होंने 1552 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम की शुरुआत की।

बता दें कि जब भारत स्वतंत्र हुआ था उस समय पंचायतों के गठन के लिए कोई प्रावधान नहीं था। जबकि महात्मा गांधी स्पष्ट रूप से यह मानते थे कि ग्राम गणतंत्र की स्थापना के लिए निचले स्तर पर पंचायतों का होना अनिवार्य है।

2 अक्टूबर 1957 को केंद्र सरकार द्वारा बलवंत राय मेहता समिति का गठन किया गया। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में रेखांकित किया कि सरकार को ग्रामीण क्षेत्र के विकास के लिए संस्थाएं गठित करके विकास का सारा कार्य उन्हें सौंप देना चाहिए।

इसी के अंतर्गत जनता द्वारा चुने गए स्थानीय स्वशासन के तीन स्तरीय ढांचे की व्यवस्था की गई, जिसमें निचले स्तर पर ग्राम पंचायत, मध्यम स्तर पर ब्लॉक में पंचायत समिति, और सबसे ऊंचे स्तर यानी जिला स्तर पर जिला परिषद के रूप में तैयार किया गया।

मालूम हो कि पंचायती राज प्रणाली की नई स्थायी व्यवस्था स्वतंत्र भारत में सर्वप्रथम राजस्थान के नागौर जिले में 2 अक्टूबर 1959 को शुरू किया गया।

इसके बाद इसे आंध्र प्रदेश में 1 नवंबर 1959 को लागू किया गया और तीन-चार सालों के अंदर इसे पूरे देश में लागू कर दिया गया।

1977 में जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी तो उसने पंचायती राज व्यवस्था की समीक्षा के लिए अशोक मेहता समिति का गठन किया।

जिसके बाद मौजूदा पंचायती राज प्रणाली की खामियों को दूर करने के मकसद से 64 वां संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया गया।

लेकिन यह पारित नहीं हो पाया फिर संशोधित संशोधन विधेयक लाया गया। जिसे पीवी नरसिम्हा राव के कार्यकाल में 16 दिसंबर 1991 को और 73 वा संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में लाया गया।

जिसे पारित हो जाने के बाद 25 अप्रैल 1993 से 73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1993 के रूप में इसे लागू कर दिया गया।

इसी के साथ पूरे देश में संघीय लोकतांत्रिक ढांचे में एक नए युग का सूत्रपात हुआ और पंचायती संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया।

ग्राम पंचायत में पंचायत क्षेत्र की कुल जनसंख्या में अनुसूचित जाति व अनुसचित जनजाति की जनसंख्या के अनुपात को ध्यान में रखकर अनिवार्य आरक्षण की भी व्यवस्था की गई। महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों को आरक्षित करने का भी प्रावधान किया गया।

भारत में पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्राप्त होने के बाद शासन सामान्य जनमानस तक पहुंच गया और स्थानीय विकास कार्यों को गति मिली। ग्राम स्तरीय स्वशासन में ग्राम वासियों की भागीदारी भी बढ़ गई।

अब स्थानीय स्तर पर ही समस्याओं का समाधान निकाला जाता है। राजनीतिक दृष्टि से भी पंचायती राज संस्थाओं का महत्व बढ़ गया है।

प्रत्येक स्तर पर सरपंचों, प्रधानों और जिला प्रमुख का महत्व दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। इसे जनता को शक्ति की अवधारणा के साकार रूप में देखा जा रहा है।

निष्कर्ष (Conclusion) :-

यह सच है कि भारतीय लोकतंत्र की सफलता व उसके उज्जवल भविष्य काफी कुछ पंचायती राज व्यवस्था की सफलता पर निर्भर है।

भारतीय लोकतंत्र को अधिक जीवंत और सशक्त बनाने में पंचायती राज व्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान लिया जा सकता है। इससे ग्रामीण विकास और जनता के मध्य बेहतर संबंध स्थापित करने में मदद मिलेगी।

पंचायती राज संस्थाओं के भारतीय संविधान का हिस्सा बन जाने के बाद यह अधिक मुखर और सशक्त होकर सामुदायिक लोकतंत्र की अवधारणा को सरकार कर रही है।

उम्मीद की जा रही है कि आने वाले समय में यह व्यवस्था और अधिक परिपक्व और प्रभावशाली होगी।

लेखिका : अर्चना  यादव

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