भूख | Bhookh par Kavita
भूख
( Bhookh )
भूख की कामना है मिले रोटियां
रहे सम्मान ना या बिके बेटियां
भूख की आग जलती है बुझती कहां?
इसके आगे ना दिखती है जन्नत जहां।
आग में जलते देखा है बच्चे जवां
भूख से जो तड़प करके देते हैं जां
रोटियां हो कई दिन पुरानी तो क्या
भूख में रोटी होती है ताजी वहां।
भूख कैसे मिटे पेट में जो लगी
जान अटकी हलक पर अड़ी की अड़ी
हैं तड़पते सड़क के किनारे पड़े
टूक रोटी दो मांगे वहां पर खड़े।
कुछ करो ना करो पर मिटाओ क्षुधा
भूख से क्यूं तड़प के हो कोई जुदा
भूखे को खिलाए जो रोटी यहां
अहमियत उसकी होती है मानो खुदा।
भूख से ही बनी सारी रिस्तें यहां
हैं बंधे डोर में सारी दुनिया जहां
छोड़ अपनों को जाता कोई न कोई
भूख को शांत करने यहां से वहां।
भूख के नाम पे लूट जाता कोई
सच्चा भूखा तड़पता रह जाता वहीं
भूख क्यों इतना ज्यादा है ज़ालिम बना
पाप हाथों से कर देख पाता नहीं।
भूख ही है जो सबसे मिलाती हमें
दूर अपनों से करके रुलाती हमें
भूख को समझें तो ऐसा सिद्धांत है
जो जीवन को जीना सिखाती हमें।
बांट मिलकर हम खाएं सभी साथ में
भूख से मर ना पाए कोई पास में
साथ जाता नही धन किसी के कभी
दो निवाला खिला कर लो पुण्य हाथ में।
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