हरि की माया
( Hari ki maya )
धुंध रहा ना बचा कोहरा,पर शक का साया गहरा है।
अपनों पर विश्वास बचा ना,मन पे किसका पहरा हैं।
बार बार उलझा रहता हैं, मन उसका हर आहट पे,
जाने कब विश्वास को छल दे,संसय का पल गहरा है।
मन स्थिर कैसे होगा जब, चौकन्ना हरदम रहते।
ईश्वर को कैसे पाओगे, मन स्थिर जब ना करते।
लोभ मोह तम् की बातों में,उलझा क्यों प्राणी बतला।
देह ध्येय सब यही रहेगा, फिर काहे बेकल रहते।
चौदह फेरे लेकर के भी, तृप्त नही जिसकी काया।
मन वैराग्य ना समझेगा,कामी मन को तन ही भाया।
सद्बुध्दि भी मोह चाशनी, में रम कर खो जाती।
हरि इच्छा से सब होता है, ये ही है हरि की माया।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )