देख ही लेती हूँ मै उसको
देख ही लेती हूँ मै उसको
दूर गगन की किस बदली में,
जाने मेरा चाँद छुपा है,
कौन भला उसे ढ़ूँढ़ के लाये
किसी को मेरी फिक्र कहाँ है,
मै तो हूँ बस आँख उठाए कि
कब काली बदली छँट जाये,
और मेरी सूनी आँखों मे,
मुझको मेरा चाँद दिखाए,
मै बर्षों से चौथ उपासी,
पानी की दो बूँद को प्यासी,
बस एक ही आस ये दिल में संजोये,
कभी चाँद अपने हाथों से,
पानी की दो बूँद पिलाये,
लेकिन चाँद कहाँ बस मेरा,
उसको दुनियाँ भर का फेरा,
वो तो है बस एक खिलाड़ी,
सबसे करता आँख मिचौनी,
कभी पेंड़ के पीछे झाँके,
कभी पहाड़ के ऊपर भागे,
कभी सितारों के मेले मे,
कभी बादलों के खेले में,
फिर भी अपने छलनी दिल से,
देख ही लेती हूँ मै उसको,
उसके नाम से पीकर पानी,
खोल ही लेती हूँ मैं व्रत को।
आभा गुप्ता
इंदौर (म. प्र.)
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