वर्तमान पीढ़ी में बढ़ता मानसिक अवसाद और पुस्तकें
परिचर्चा की समीक्षा
अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी संगठन नीदरलँड द्वारा दिनांक 17 , नवंबर को “ वर्तमान पीढ़ी में बढ़ता मानसिक अवसाद और पुस्तकें “ जैसे सामयिक व गंभीर विषय पर रोचक व ज्ञानवर्धक परिचर्चा आयोजित की गई।
प्रसिद्ध साहित्यकारों और शिक्षकों ने ज्ञानवर्धक जानकारी के साथ -साथ इस भयावह स्थिति से उबरने के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिए।
कार्यक्रम की प्रणेता डॉक्टर ऋतु ननन पाण्डेय ने कार्यक्रम का प्रारंभ खूबसूरत पंक्तियों ‘चाहत चाँद पाने की थी, मन कागज की नाव से बहल जाता था ‘ से किया जिसने परिचर्चा का उद्देश्य स्पष्ट कर दिया था और इन पंक्तियों में दो पीढ़ी पूर्व के बच्चों की संतुष्टि की मानसिकता की झलक स्पष्ट रूप से दिखलाई दे रही थी ।
इसके साथ ही उन्होंने आज की पीढ़ी की मानसिक अवसाद की ज्वलंत समस्या की और साहित्यकारों का ध्यान आकृष्ट किया । कार्यक्रम संचालक की भूमिका में उन्होंने विषय से संबंधित निम्न प्रश्न विद्वानों के समक्ष रखे ;
1 आज की पीढ़ी में बदते मानसिक अवसाद से बच्चों के माता पिता उनके भविष्य को लेकर चिंतित होने के कारण कहीं अपने सपने बच्चों में तो नहीं थोपना चाहते ?
2 बालक/ बालिकाओं व युवाओं की अवसाद की स्थिति के लिए अध्यापक , अध्यापिका व विध्यालयों की भूमिका कैसी होनी चाहिए।
3 क्या आज के अभिवावक बच्चों से जुडते हैँ और उनके साथ दोस्ताना व्यवहार रखते हैँ ? अपने बच्चे के मार्क्स की तुलना अन्य बच्चों से कर माता – पिता की झुंझलाहट का क्या कारण है और एक अभिभावक के रूप में वो क्या सहायता का सकते है तथा कैसे समझे की बच्चा मानसिक अवसाद से ना जूझे?
4 क्या साहित्य व पुस्तकें अवसाद से बचाने में सहायक हो सकती है?
5 विशेष ( दिव्यांग ) बच्चों में मानसिक अवसाद ज्यादा होता है पर उनकी और ध्यान कम दिया जाता है तो ऐसे बच्चों के साथ अभिवावक कैसे संवाद करें ?
कार्यक्रम अध्यक्ष डॉक्टर हेमंत कुमार :
विषय को महटवपूर्ण बताते हुए कहा कि अवसाद में जाने के कारण बच्चे आत्महत्या जैसा कदम उठा रहे हैँ । नंबर कम आना किसी प्रतियोगिता में पीछे रह जाना ही अवसाद के प्रमुख कारण हैँ जिससे छुटकारा पाने के लिए अभिभावक को बच्चों को समय देकर उनसे संवाद कर महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी ।
जितना मोबाईल लैपटॉप बच्चों के हाथ में आ रहा है उतना ही कम्युनिकेसन गैप बड़ रहा है । बच्चा स्कूल के होम वर्क के दवाब में है साथ में ज्यादा नंबर लाने का दवाब है ।

अपनी पीढ़ी के समय से सार्थक तुलना कर बताया कि हमारे समय की कहानियों में पीढ़ी का अंतर सिखलाया जाता था। आजकल माता पिता अपने अपने व्यवसाय में व्यस्त हैँ और बच्चों के लिए समय नहीं है जो पर्सनटेज की दौड़ में लगा है जिससे तनाव है ।
इस से निजात पाने के लिए अनुकरणीय सुझाव दिया कि तनाव का पता तो व्यवहार से ही चल जाता अतः ऐसे समय में बच्चों से संवाद एक प्रशासक की तरह न करके दोस्त की तरह प्रकृति के सानिध्य में या खेल की तरह करने से तनाव को कम करने में सहायता मिलेगी।
नरेंद्र सिंह नीहार :
पुराने समय को याद कर कहा तब प्ले स्कूल नहीं थे और संयुक्त परिवार में रहने से दादा दादी के सानिध्य में ही समाजीकरण हो जाता था । आज बच्चा दो साल की उम्र में प्ले स्कूल में जा रहा है परिवार एकल हो गए हैँ।
आज सबसे पहले बच्चे से पूछा जाता है कि बड़े होकर क्या बनोगे ? आजकल बच्चे को ना तो बचपन जीने दे रहे हैँ न किशोर अवस्था को परिपक्व होने दे रहे हैँ ।
इसी संदर्भ में अत्यधिक महत्वपूर्ण सुझाव दिया कि पहले उसको अपना बचपन तो जी लेने दो । इस बात को सत्यपित करते हुए एजुकेशन हब कोटा का उदाहरण देते हुए कहा की वहाँ इतना मानसिक दवाब है कि हर तीसरे दिन एक नौनिहाल अपनी जीवन यात्रा समाप्त करता है क्योंकि बच्चे की इच्छा के विपरीत माता – पिता का दवाब उसे उस रास्ते पर ले जाता है जिसमें न् तो उसकी अभिरुचि है और नहीं वह उस फील्ड में अपने को सक्षम पाता है ।
भविष्य को लेकर यही अनावश्यक दुष्चिन्ता मानसिक अवसाद की और ले जा रही है । वर्तमान शिक्षा की स्थिति को उजागर करते हुए कहा अच्छे शिक्षकों की कमी है और बच्चे शिक्षक बनना नहीं चाहते क्योंकि माता पिता के दवाब के कारण उनका सपना केवल डाक्टर , इंजीनियर प्रशासक तक सीमित है ।
देश का निर्माण विधालयों और महाविध्यालयों में ही होता है इसलिए यदि अच्छे शिक्षक नहीं होंगे तो विश्व गुरु का सपना कैसे पूरा होगा और उनको डाक्टर , इंजीनियर कौन बनाएगा ।
उनके द्वारा आओ ‘हम पदें की बात कही गई अर्थात जब अभिवावक खुद पढ़ेंगे तो बच्चा नजदीक आकर साथ – साथ अपने आप पढ़ेगा ।
अनुकरणीय सुझाव दिया कि अपनी सोच बच्चे पर न् थोपकर जहां उसकी रुचि हो और जहां वह बेहतर कर सकता है उस दिशा में ही उसे अवसर दिए जाएँ तो मानसिक तनाव न् झेलकर वह बेहतर करेगा जो देश और समाज दोनों के हित में होगा ।
डॉक्टर अनिता वर्मा :
मानसिक दवाब घर परिवार का दिया हुआ है बच्चों के सामने ऊंचे लक्ष रख दिए जाते हैँ कि तुमको इस स्तर तक पहुंचना है जो पिछले 15-20 साल में उभर कर आया है ।
इससे पूर्व बच्चे संयुक्त परिवार में रहते थे परिवार व दादा दादी के साथ उठते बैठते थे और उसी से बहुत कुछ सीख जाते थे । घर से बाहर निकलकर सीखने को बहुत कुछ था ।
आज स्थिति विपरीत है बच्चों को दवाब में शिक्षक व आसपास का वातावरण नहीं डाल रहा है वरन सोशल मीडिया और टी वी चैनल दवाब में डाल रहे हैँ ।
रील देखते हैँ जिससे सोचने व ध्यान लगाने की क्षमता कम होती जा रही है । अभिवावकों के पास समय नहीं है इसलिए बच्चों को मोबाईल व टीवी तक सीमित कर दिया गया है ।
अपनी पीढ़ी के समय से तुलना करते हुए बताया कि पहले बच्चा बाहर व दोस्तों से सीखता था । कहानी व किस्सा गोई का अलग आनंद था। साहित्य के अलावा विज्ञान में भी प्रकृति से सामंजस्य था बच्चे पेड़ पौधों को उगता व बड़ा होते देख सकते थे उनको छू सकते थे , उनसे बातें कर सकते थे ।
किताबों में समय व्यतीत करते थे तो दुनिया हमारी होती थी क्योंकि किताबें पॉलीसिंग करती हैँ। डायरी लिख स्वयं से संवाद होता था जिससे सत्तर प्रतिशत अवसाद दूर होजाता था शेष अवसाद खेल व प्रकृति से जुड़कर दूर होता था।
नए दौर में बच्चे स्क्रीन तक सीमित हो गए हैँ जिसके कारण जहां एक और क्षमता व विकास कम हो रहा है वहीं दूसरी और अपेक्षाएं बढ़ रही है। आज कंप्युटर में क्लिक करके बच्चे पौधों का उगना बढ़ना देख तो सकते हैँ पर उसे छू नहीं सकते। अब पुस्तकों से दूर रंग बिरंगी दुनिया में चले गए हैँ ।
सुझाव दिया कि किताबों की भाषा से सोच समझ को नए आयाम मिलेंगे क्योंकि किताबें पढ़ने और कहानी सुनने और पढ़ने से परिवार एकजुट होकर बांधता है। बेहतर विकास और अवसाद दूर करने के लिए बच्चों को खुले पन से जीना सिखाना आवश्यक है ।
डाक्टर ऋतु ननन पाण्डेय ने अपने सुझाव में प्रवासी भारतीयों की पुस्तकों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करना , मोबाईल की लत कम करना , किताबों में मन लगाना , बच्चों के लिए समय निकालना , उनको पुस्तकें उपहार में देना और सरकार द्वारा साहित्यकारों और प्रकाशकों को प्रोत्साहित करना भी बच्चों का अवसाद काम करके उनको स्वस्थ नागरिक बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम होगा ।
समीक्षक की कलम से :
परिचर्चा का निष्कर्ष यही है कि अवसाद से छुटकारा पाने के लिए बच्चों से संवाद , परिवार से जुड़ना , पुस्तकों और प्रकृति से लगाव, उनको अपने जीने की राह खुद चुनने देना जैसे उपाय लाभदायक है ।
ये समस्या उस वर्ग की ज्यादा है जिनके बच्चे तथाकथित बड़े प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैँ और जिनकी आकांक्षाएं भी बहुत अधिक होती है। इस प्रकार की परिचर्चा आयोजित होती रहनी चाहिए पर इस प्रकार के वर्ग तक इन परिचर्चाओं के सुझाव पहुचाना चुनौती से भरा है।
परिचर्चा तभी सार्थक हो पायेंगी जब इस वर्ग के लोगों तक इनके सुझाव पहुंचे । के माध्यम से इस विषय को उकेरा था । एक पहल तो अभिवावकों लो अपने घर से ही करनी होगी की बच्चों से संवाद करते हुए उनसे जुड़ें और पुस्तकें पड़ने के लिए घर में वातावरण बनाएं।
मीडिया भी राजनैतिक परिचर्चा के साथ साथ बच्चों के लिए इन विषयों पर परिचर्चा के साथ शिक्षाप्रद सीरीअल भी बनाएं जैसे फिल्म जगत ने ‘तारे जमीं पर’ और ‘थ्री ईडियट’ जैसी फिल्मों बनाई थी ।
स्कूलों में भी पढ़ाई को दवाब का विषय न बनाकर खेल खेल में सिखाने की नीति अपनाई जानी चाहिए । यदि अभिभावक, स्कूल प्रशासन , मीडिया , प्रकाशक सभी सार्थक प्रयास सही अर्थों में करेंगे तो सफलता निश्चित मिलेगी ।
प्रस्तुति : गिरीश जोशी
संरक्षक हिन्दी की गूंज
कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग अंतरराष्ट्रीय हिंदी संगठन नीदरलैंड के यूट्यूब पर उपलब्ध है ।
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