गाड़ी बुला रही है
और अंततः वो छुक छुक गाड़ी बंद हो ही गयी.. पिछले करीब एक सो पच्चास सालो से अनवरत चलने वाली मिटर गेज रेल गाड़ी ने साल 2016 के अंतिम दिन अपना अंतिम सफर पूरा किया।
नए साल का पहला दिन पूरी शांति के साथ बिता.. बीते डेढ़ सौ वर्षो का शौर थम गया.. स्टेशन खामोश हो गए.. पटरिया वीरान हो गयी.. जंगलो में एक अजीब सी ख़ामोशी छा गयी.. पटरियों पर दौड़ते जीवन को मौत आ गयी.. चाय की केतलिया ले कर दौड़ते पग थम गए।
आज भी वो दृश्य आँखों में हमेशा उभर आता है जब पहली बार मै रतलाम से माँ के साथ इसी रेल में सवार हुआ था.. माँ की भी सम्भवतः यह पहली रेल यात्रा थी.. साथ में माँ के मामाजी श्री चुन्नीलाल जी भी थे..मै जब बहुत छोटा था.. इतना छोटा की मेरी ऊँगली थामी जा रही थी।
मुझे बार बार हिदायत दी जा रही थी की खिड़की के बाहर हाथ न निकालू.. चुप चाप बैठ जाऊ.. मगर बचपन में जानने की ललक बच्चों में बहुत रहती है.. मै भी जिज्ञासा वश बार बार इधर उधर देख रहा था.. और फिर इतने बरसो में सब से अधिक इसी रेल गाड़ी में सफर किया है।
इतना अधिक की इस रेल से मोह सा हो गया है.. कैसी अजीब विडंबना है की ग्रन्थो में जहाँ मोह का निषेध है वही मुझे मोह भी कैसी निर्जीव वस्तु से हो गया है.. नही नही.. ये निर्जीव नही थी.. ये तो बेजानो में जान फूंक देती थी.. इसे आते देख बजुर्गो में भी कमाल की फुर्ती आ जाती थी.. स्टेशनों पर मेला सा लग जाता था.. एक अजीब सा मगर प्यारा शौर कानो में रस उड़ेल जाता था।
यह रेल पहले सिकंद्राबाद से अजमेर तक चलती थी.. और इस में तौबा गर्दी रहती थी.. लंबे सफर की रेल होने के कारण यात्री ठसाठस भरे रहते थे.. उन दिनों जगह मिलना बड़े नसीब की बात समझी जाती थी.. बहुधा निचे बैठ कर यात्रा करनी पड़ती थी.. कालांतर में छोटी लाइन को बड़ी लाइन में परिवर्तन काम शुरू हुआ।
एक एक कर स्टेशन कम होने लगे और शनै: शनै: यह रेल अकोला से रतलाम तक ही चलने लगी.. अकोला से रतलाम चलने के कारण हमारे अच्छे दिन आ गए.. आसानी से जगह मिलने लगी.. कभी कभार तो ऐसा भी होता की हम देखते की किस डिब्बे में लोग है क्यू की पुरे डिब्बे में यदि आप अकेले ही हो तो यह बहुत असहज स्थिति हो जाती है।
पिछले कई सालो से इस के बंद हो जाने की बात शुरू थी.. हर बार तारीखे दी जाती और फिर तारीखे आगे बढ़ा दी जाती.. मगर इस बार ऐसा नही हुआ.. साल का आखरी दिन इस का भी आखरी दिन ही सिद्ध हुआ.. आखरी दिन इसे भाव भीनी विदाई दे दी ही गयी.. सभी के मन विचलित हो रहे थे।
डेढ़ शताब्दी का यह अनवरत सफर रुक गया.. गाड़ी चलाने वाले ने भी बुझे मन से गाड़ी को आखरी बार पटरी पर दौड़ाया.. वो जानता था अब पहाड़ो.. नदियो और जंगलो के सुंदर दृश्य देखने नही मिलेंगे.. सभी लोग और सभी रेल कर्मी उदास थे।
रेल के बंद हो जाने से अब मुझे कुछ चिरपरिचित आवाजे कभी नही सुनाई देंगी.. एक रोटी का सवाल है– मै रोटी खा लूंगा– मै प्यास बुझा लूंगा– मेरे अच्छे दिल से तुम को– जी भर कर के दुआ दूंगा.. एक सूरदास की बचपन से ही यह आवाज सुनता आ रहा हु.. उसके जीवन चक्र में यह छोटी लाइन की रेल की अहम भूमिका है।
रेल के अभाव मे अभी वो क्या कर रहा होंगा..? वो तो रोज रेल में ही रहता था.. क्या उसे घर की शांति खोखली शांति का अहसास करा रही होंगी..?
क्या अब सड़को पर भीख मांगेगा.. कोई जवाब नही है मेरे पास.. और वो चपल बुजर्ग महिला.. बुढ़ापे में भी उसकी चुस्ती फुर्ती तारीफ ए काबिल है.. उस का ब्रीद वाक्य तो मेरे कानो में हमेशा गूंजता रहता है।
मूंगफली बेचने वाली वो महिला अपनी मूंगफली को काजू कहती है.. ऐ बेटा राजू– खा ले काजू– नही तो हट जा बाजु.. उसकी आवाज तो दूसरे डिब्बे में तक भी पहुच जाती थी.. उम्र के अंतिम पड़ाव में अब अपने काजू वो कहा बेचेंगी.. क्या वो भी उदास होंगी।
क्या बस स्टैंड पर उस के काजू कोई खरीदेंगा.. भला चलती बस में उसे कोई केसे स्वीकार कर सकता है.. रेल की बात अलग थी.. और कालाकुंड में कलाकंद बेचने वाले उस उम्र दराज दंपति का कलाकंद अब कौन खायेगा..? बचपन में बाबूजी मुझे कालाकुंड में कलाकंद जरूर खिलाते थे।
यह क्रम मैने भी शुरू रखा था.. रेल की भीड़ कलाकंद खाने के लिए टूट पड़ती थी.. घन्टो पहले ही रेल में चर्चा शुरू हो जाती थी की कालाकुंड आने वाला है.. कालाकुंड के कलाकंद पर चर्चाये होती थी.. बच्चों और नए यात्रियों को कलाकंद खाने की उत्सुकता रहती थी।
वे बुजुर्ग पति पत्नी जीवन के शेष बचे दिन क्या इस छुक छुक गाडी की यादो में बिताएंगे.. लाखो लोगो ने उनका कलाकंद खाया होंगा.. क्या वे हमारे चेहरों को बंद आँखों से याद करेंगे.. क्या मै फिर कभी उनका कलाकंद चख पाउँगा.. शायद नही.. शायद नही बल्की पक्का नही।
क्यू की रेल बड़ी लाइन में परिवर्तित हो रही है और नयी राह में यह स्टेशन शामिल नही है.. और अब घने जंगलो में गहरी खाई के पास पहाड़ो पर उस बाबा को अगरबत्ती कौन लगायेंगा.. अभी तक तो हर आने जाने वाली रेल को उस जगह पर रोका जाता है.. गाड़ी के चालक फूल अगरबत्ती लोबान आदि चढ़ाते है.. मान्यता थी की इस पूजा अर्चना के बाद ही रेल आगे बढ़ पाएंगी अन्यथा नही.. अब वह स्थान भुला दिया जायेंगा.. आने वाले समय में यह कहानियो में भी नही रहेंगा।
बरहाल इसका अवसान तय था.. इस राह पर नयी रेल कब चलेंगी इसका कोई ठिकाना नही.. सुना तो यह भी जा रहा है की नये मार्ग बनाये जायेंगे.. सोचता हु यदि नये मार्ग बनाने ही है तो इसे बंद नही किया जाना चाहिए.. विश्व की प्राचीनतम रेल सेवा में इसे शुमार कर देश विदेश के यात्रियों को भ्रमण के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
यह पर्यटको के लिए अति उत्तम मार्ग है क्यू की इस राह पर पहाड़ है.. झरने है.. घने जंगल है.. वन्य जिव है.. गुफाएं है.. मतलब यही की रोमांचकारी सफर का पूरा सामान है.. घने जंगलो में विश्राम ग्रह बनाये जा सकते है जहा पर पर्यटक चाहे तो कुछ दिन सीधे प्रकति से रूबरू हो सके.. शालेय छात्रो को भी सैर के लिए यहाँ लाया जा सकता है.. फिल्मकारों को प्रोत्साहित किया जा सकता है की इस रेल सेवा के माध्यम से अपनी फिल्मो की शूटिंग यहाँ करे.
वक्त के साथ साथ लोग इसे भूल जायेंगे.. मगर मै इसे शायद ही भुला पाउँगा.. कभी खटारा तो कभी बैल गाड़ी के संबोधन पाने वाली इस रेल ने सभी को बड़े ही प्रेम से अपने गंतव्य तक पहुँचाया है.. कई बार मैने देखा था की चल पड़ने के बावजूद भी पीछे दौड़ते हुए यात्री को देख यह धीमी पड़ जाती थी और उस के सवार होने के बाद ही गतिमान होती थी।
गोया की मुसाफ़िर से कोई निजी रिश्ता हो.. वक्त के खेल बड़े ही निराले है.. कल की आबाद राहे अब सुनसान हो गयी है.. जंगल के जिव जंतु भी अब सोच रहे होंगे की उन के जीवन में अचानक यह खालीपन कैसा भर आया है.. अपने बच्चों को क्या वे भी इस की कहानी सुनाएंगे.. क्या अपने बच्चों को पटरीयो पर जाने से अब नही रोकेंगे..? मेरी कल्पनायें अनंत है.. मेरे विचारो का कोई थाह नही है।
मै चाहता हु की यह रेल मुझे फिर से बुलाये.. मै इसे खोना नही चाहता हु.. मै इसे पाना चाहता हु.. अपने पूर्वजो की राह पर धूल जमे यह मुझे नही सुहायेंगा.. डेढ़ सो वर्षो से दौड़ने वाली यह छुक छुक गाडी हजारो वर्षो तक यु ही दौड़ती रहे.. काश की कोई मेरी यह पुकार सुन ले.. मगर ऐसा नही होना है।
इन राहो को सुनसान होना ही है.. दूर एक और खड़ी रेल को भी इंतजार होंगा की उसका मालिक आयेगा और उसे फिर से दौड़ायेंगा.. मगर वो बावरी नही जानती की अब कोई नही आयेगा।
कोई नही.. न सफ़ेद कोट वाला और न ही नीली शर्ट वाला.. सब अपनी अपनी दुनिया में मसरूफ़ है.. उसे अब वही खड़े रहना है.. एक जगह पर.. एक ही स्थान पर.. जब तक की उसे जंग नही लग जाता.. जब तक की कोई भंगार वाला तोड़ तोड़ कर उस के प्राण नही ले लेता.. अनेक अनेक धन्यवाद।
रमेश तोरावत जैन
अकोला
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