घर को संभाले | Ghazal Ghar ko Sambhale
घर को संभाले
( Ghar ko Sambhale )
इस दिल को बता तू ही करूँ किसके हवाले
अब तेरे सिवा कौन मिरे घर को संभाले
इक बात ही कहते हैं यहाँ आके पड़ोसी
जब तुम थे बरसते थे यहाँ जैसे उजाले
मेरे ही तबस्सुम से तिरा रूप खिला है
तू अपनी निगाहों के कभी देख तो हाले
बख़्शी थी कभी टेक के सर ,तूने मसर्रत
काँधे से मिरे आज तू फिर सर को टिकाले
ताउम्र रुलायेगा तुझे मेरा बिछड़ना
बैठा हूँ तिरे दर पे मुझे अब भी मनाले
कहते हैं तुझे लोग मिरे ग़म का मसीहा
आजा कि मिरी जान मिरी जान बचाले
आऊंगा नज़र मैं ही तू देखेगा जिधर भी
तस्वीर मेरी लाख तू अब घर से हटा ले
अपने तो बहुत लोग हैं अब देखिये साग़र
इस दौरे-कशाकश से मुझे कौन निकाले
कवि व शायर: विनय साग़र जायसवाल बरेली
846, शाहबाद, गोंदनी चौक
बरेली 243003
यह भी पढ़ें:-