निबंध : मृत्युदंड अमानवीय या जरूरत
निबंध : मृत्युदंड अमानवीय या जरूरत

मृत्युदंड : अमानवीय या जरूरत

( Death Penalty, Inhuman or Necessary : Essay in Hindi )

 

भूमिका (Introduction) :

कैपिटल पनिशमेंट को मृत्युदंड या फांसी के नाम से भी जाना जाता है। यह मुद्दा इसके समर्थकों और विरोधियों के बीच अक्सर बहस का कारण बनता है।

सच यह है कि भारत के कुछ जघन्य और राजनीतिक अहमियत वाले मामलों में मृत्युदंड की सजा अपराधियों को दी जाती है।

पिछले 70 साल के इतिहास पर अगर नजर डालें तो महात्मा गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारे को फांसी देने के मामले में हमारी नजरों के सामने आते हैं।

हाल के वर्षों में आतंकवाद के खिलाफ कानून के तहत आतंकी गतिविधियों में लिप्त आरोपियों को फांसी देने का प्रचलन बढ़ गया।

मृत्युदंड राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विवाद का विषय रहा है। लेकिन इसके बावजूद अब तक इसका कोई परिणाम नहीं निकल पाया। विचारक, न्यायाधीश व समाज का बुद्धिजीवी वर्ग इस मुद्दे पर एकमत राय नहीं रखता है।

सदियों से मृत्युदंड का प्रावधान कई देशों में न्याय व्यवस्था का एक अभिन्न अंग रहा है। लेकिन भौगोलिक और ऐतिहासिक वजह से इसके स्वरूप में भिन्नता अक्सर ही देखने को मिलती है।

भारतीय न्यायव्यवस्था न्याय के सुधारक और निवारक सिद्धांतों का मिश्रण है। दंड विधान का एक लक्ष्य जहां अपराधियों को अपराध करते से रोकना है, वही इसका दूसरा लक्ष्य उन्हें सुधरने का मौका देना भी है।

इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर विधायिका ने अपराध दंड संहिता की धारा 354(3) को जगह दी। वास्तव में मृत्युदंड की सजा सुनाने की हालत में न्यायाधीश द्वारा इसकी खास वजह को स्पष्ट करने की एक आवश्यक शर्त इसमें बताई गई है।

इस तरह से 1973 के बाद से दंड संहिता में संगीत अपराधों में आजीवन कारावास का प्रावधान है। कुछ विशेष परिस्थितियों में ही मृत्युदंड की सजा दी जाती है।

मृत्युदंड पर सर्वोच्च न्यायालय का रुख ( Supreme Court’s stand on death penalty in Hindi ) –

1983 के बचन सिंह मामले में ऐतिहासिक निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि मृत्युदंड की सजा को संगीनतम अपराधियों तक ही सीमित रखना चाहिए।

इसे एक अपवाद की तरह से देखा जाना चाहिए। हत्या, सामूहिक डकैती के साथ हत्या, किसी बच्चे का मानसिक रूप से कमजोर होने या इंसान को आत्महत्या के लिए प्रेरित करना, सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ना और किसी सैन्य विद्रोह में शामिल जैसे अपराध संगीन अपराध की श्रेणी में आते हैं।

मृत्युदंड के समर्थन में तर्क ( Arguments in support of the death penalty in Hindi) –

मृत्युदंड के समर्थकों का तर्क है कि मानव जीवन बहुत ही महत्वपूर्ण है। निर्दोषों की रक्षा करना समाज का अधिकार ही नहीं वरन कर्तव्य भी होना चाहिए।

निर्दोषों की रक्षा का एक तरीका है कि जघन्य अपराध के आरोपियों को ऐसी सजा मिले जो दूसरों के लिए एक उदाहरण साबित हो, जिससे वे अपराध करने से पहले एक बार सोचे और ऐसे अपराध को रोकने का काम करें।

पूरे देश में फिरौती के लिए अपहरण की घटना, कुछ दिन पहले ही सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की तरह कर्ताओं की कड़ी से कड़ी सजा देने की सलाह दी थी।

तब न्यायालय ने कहा था कि कानून फिरौती के लिए अपहरण के लिए कुछ खास परिस्थितियों में ही मृत्युदंड की इजाजत देता है। इसके लिए  व्यक्ति की हत्या कोई आवश्यक शर्त नहीं है।

मृत्युदंड के विरोध में तर्क ( Arguments against the death penalty in Hindi ) –

मृत्युदंड के खिलाफ तर्क देते हुए मिनिस्ट्री इंटरनेशनल का मानना है कि मृत्युदंड मानवाधिकारों के उल्लंघन की पराकाष्ठा है।

वास्तव में न्याय के नाम पर यह व्यवस्था किसी इंसान की सुनियोजित हत्या करने का एक तरीका है। यह जीने के अधिकार के बिल्कुल विरुद्ध है।

इसे न्याय का सबसे गैर मानवीय और अपमानजनक तरीका समझा जाता है। यातना और क्रूरता को किसी लिहाज में न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।

इस तरह से विश्लेषण से स्पष्ट है कि देश में मृत्युदंड पाने वाले अधिकांश व्यक्ति समाज के नियम सामाजिक श्रेणी के गरीब लोग होते हैं।

इस वजह से न उन पर लगाए जाने वाले आरोप ठीक से समझ पाते हैं न ही प्रभावी वकील कि उन्हें सेवाएं मिल पाती है।

पुलिस द्वारा मारपीट कर खाली कागजों पर अंगूठा लगवाना और हस्ताक्षर करवा देना निर्दोष होने के बावजूद अपराधी मान लिए जाते हैं। गरीब और निम्न वर्ग को न्याय सुनिश्चित करने के लिए निकट भविष्य में कोई संभावना भी नजर नहीं आती।

वैधानिकता पर विचार (Consideration of legality about death penalty in Hindi ) –

सर्वोच्च न्यायालय ने जगमोहन बनाम उत्तर प्रदेश मामले में धारा 302 की वैधानिकता पर विचार किया। उसने भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों सहित अन्य देशों में मौजूद परिस्थितियों भारतीय अपराध कानून की संरचना, न्यायिक विवेक के इस्तेमाल की सीमा जैसे सभी मुद्दों पर विचार विमर्श किया।

आखिर में शीर्ष न्यायालय ने फैसला सुनाया कि मृत्युदंड का प्रावधान न केवल जघन्य अपराधों को रोकने में निरहुआ का काम करता है बल्कि समाज द्वारा ऐसे अपराधों की तीव्र मुखाल्लत का भी एक सूचक है।

निष्कर्ष (The conclusion) :-

फांसी की सजा सुनाने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का रवैया सावधानी भरा और प्रतिबंधात्मक रहा है, जो आधुनिक न्याय व्यवस्था के उदारवादी रवैया से मेल भी खाता है।

शीर्ष न्यायालय द्वारा संगीनतम अपराधों और अपवाद की विचारधारा न्याय व्यवस्था के मानवीय पहलू को उजागर करने का काम करता है।

ऐसे कई मामले हैं जिसमें अदालत ने इस श्रेणी में आने वाले अपराधों की हालत में भी आरोपी को मृत्युदंड देने से इनकार कर दिया है

लेखिका : अर्चना  यादव

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