होली में

होली रंगों का त्यौहार

रंगोत्सव पर विशेष

      रंगों का त्यौहार रंगोत्सव, जीवन को विभिन्न कला रूपों के साथ मनाने, इस तनाव भरे जीवन मे सबके चेहरों पर मुस्कान लाने एवं उनकी रचनात्मक क्षमता को प्रोत्साहित करने का एक माध्यम है। यह रंगोत्सव का त्यौहार जीवन आश्चर्य और नए अनुभवों से भरा होता है। हर दिन कुछ नया लेकर आता है और हम नही जानते कि क्या उम्मीद करनी है। रंग हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण भाग है जो हमें जीवंतता और उत्साह से जोड़ते है।

      होली बसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक विशेष भारतीय एवं नेपाली लोगों का त्यौहार है। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व बसंत का सन्देशवाहक है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अबग है ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस वक्त रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपने चर्मोत्कर्ष पर होती है। होली का यह त्यौहार बसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता है। उसी दी प्रथम बार गुलाल उड़ाया जाता है और इस दिन से ‘फ़ाग’ और ‘धमार’ जैसे होली के गीत गाये जाते है। खेतों में सरसों खिल उठती है और गेहूँ की बालियां इठलाती हुई पूरे वातायन को सुंगधित करती हैं।

      इस पर्व पर विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए कामना करती हैं और होलिका माता की पूजा-अर्चना करती हैं, जो कि समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है।

      भारत मे यह होली पर्व ऐतिहासिक ही नही अपितु सांस्कृतिक भी है, जो  सदियों से चली आ रही है।  पुराणों में वर्णित है। इसे हम रंगोत्सव या मदनोत्सव भी कह सकते है। बसन्तोत्सव के रूप में माना जाने वाला यह त्यौहार काम-महोत्सव के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस समय प्रकृति भी एक ऐसा परिवेश रचती है जो कि मधुमय और रसमय होता है। पौराणिक ग्रन्थ ऋग्वेद में मधु का उल्लेख भी मिलता है।

मधु का अर्थ होता ह संचय से जुटाई गई मिठास (मधुमक्खियां अनेक प्रकार के फूलों से मधु को जुटाकर एक स्थान पर संग्रहित करती ह) या हम कहें कि मधु-संचय के लिए संघर्ष ही जीवन को रसमय बनाने का काम करती हैं।

    कामसूत्र या भविष्योत्तर पुराण के अनुसार, होलिका पतझड़ या हेमन्त के अंत का सूचक है, लेकिन बसंत काम और प्रेममय लीलाओं का प्रतीक है, वही राग-रंग सन्देशवाहक भी है। यह राधा-कृष्ण के प्रेम का प्रतीक त्यौहार है। जिसकी शुरुआत ही बरसाने से हुई थी। कहा गया है जी जब राधा और कृष्ण बचपन मे थे तो अपने सखाओं के साथ मिलकर रंगों से खेलते थे। यह खेल उनके प्रेम और स्नेह का प्रतीक था, जो आज भी होली के रूप में मनाया जाता है।

     रंगों , खुशियों और पकवानों से भरे इस होली के त्यौहार को भाईचारे के रूप में जाना जाता है। यह अपनापन का त्यौहार है जो सारे गिले-शिकवों को दूरकर खुशियों के साथ रंग-गुलाल लगाकर एक-दूसरे के गले मिलकर मनाया जाता है।

      होली के रंगों से जीवन में सकारात्मकता और ऊर्जा का स्फुरण होता है। होली के दिन रंगों का भी विशेष महत्व है।  ज्यादातर लोग सफेद वस्त्र पहनते है। यह रंग आध्यात्मिकता एवं शांति का प्रतीक है, वही लाल रंग शक्ति और दृढ़ता, हरा रंग हरियाली और जीवंतता, पीला रंग खुशी, गुलाबी रंग प्रेम, केसरिया रंग संतोष और त्याग, बैंगनी रंग ज्ञान और नीला रंग शांति और आध्यात्मिकता से जुड़े है। नीला रंग कृष्ण, राम और शिव से जोड़ता है।

      भारतीय साहित्य में भी इस रंगोत्सव की झलक देखने को मिलती है, जिसमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली और कालिदास की कुमारसम्भव शामिल है, जबकि कालिदास रचित ऋतुसंहार में बसन्तोत्सव पर आधारित है।भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में फागुन और होली का विशिष्ट स्थान रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति, सूरदास, रहीम, रसखान, जायसी और कबीर सहित अन्य कवियों का प्रिय विषय रहा है।

तुम्हारा साथ और तुम

डॉ पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’

लेखिका एवं कवयित्री

बैतूल ( मप्र )

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