हम तो टेंट वाले हैं | Hum to Tent Wale Hain
लाल किले में आजादी जश्न के मौके पर हर साल मुशायरा होता है। ऐसे ही कम से कम 40 या थोड़ा उससे आगे या पीछे वक्त की बात है। एक मुशायरा चल रहा था।
जनवरी की ठंड थी, लेकिन श्रोताओं की वाहवाही और शायरों के एक से बढ़कर ग़ज़ल और शायरी से ठंड का नामोनिशान था ही नहीं। एक से एक धाकड़ शायरों से श्रोतागण भी रुबरु हो रहे थे।
जब आधी रात हो गई, श्रोताओं में जोश ठंडा हो गया और बड़े बड़े गुलफाम अपना कलाम सुनाकर चले गए। अब आदि इत्यादि की पंगत वाले, जो लिखते तो बहुत शानदार थे, पर जनता जनार्दन में उनकी इमेज अभी इतनी बड़ी नहीं थी।
वो अभी मठाधीश नहीं हुए थे। जब रात बहुत बढ़ गई और ठंड भी अपना जलवा दिखा रही थी। एक-एक करके व्यक्ति जाने लगे। अभी भी कुछ शौकीन लोग बैठे हुए थे।
आयोजन वालों ने घोषणा की, “जब तक हमें अंतिम व्यक्ति सुनने वाला है तब तक यह मुशायरा जारी रहेगा।” और इस तरह सारी रात मुशायरा चलता रहा।
जो लोग बहुत दूर बिल्कुल पिछली कतार में बैठे थे, उन्हें आगे आने को कहा गया। सुबह के लगभग चार बजे केवल चार-पांच व्यक्ति बचे। मुशायरा वालों ने कहा भाई आप आगे आ जाओ हमें ऐसे ही श्रोता की जरूरत है।
मुशायरा खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। मुशायरा वाले भी अब थक चुके थे, लेकिन अपने श्रोताओं की मोहब्बत देखकर, मुशायरे वाले उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहते थे।
मुशायरा वाले बोले भाईजान थोड़ा और पास आ जाओ। अभी भी हमारे ख़ज़ाने में एक से बढ़कर एक नायाब हीरा है। श्रोताओं में थोड़ा और नज़दीक आया और झिझकते हुए बोला, “भाई साहब आपका यह प्रोग्राम कब खत्म होगा। हम तो टेंट वाले हैं। हमें टेंट उखाड़कर दूसरे प्रोग्राम में ले जाना है।”

दीपक वोहरा
(जनवादी लेखक संघ हरियाणा)
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This article is based on a joke, which was told me my guru and friendly shayar late Omprakash Ulfat ji. He was one of the finest shayars and poets of urdu and Punjabi languages. He was awarded Haryana Urdu sahitya academy.