सभी उन्हें कलयुग के राम कहते हैं। वैसे उनका नाम उनके माता-पिता ने रामचंद्र रखा भी था। भगवान राम जैसे उनका स्वभाव भी है । भाइयों को एक सूत्र में बांधने की कला उन्होंने आजीवन की है। वैसे उनकी शादी हो चुकी थी कि पिता का साया सिर से उठ गया।

परिवार की सारी जिम्मेदारी अब उनके कंधों पर आ चुकी थी। अभी दो छोटे भाई बहन की शादी होनी बाकी थी। उनका छोटा भाई अभी पढ़ कर रहा था उनकी इच्छा थी कि मैं नहीं पढ़ सका तो कम से कम भाई ही पढ़ ले।

बहन की शादी की भी चिंता उन्हें खाएं जा रही थी। जैसे तैसे कुछ पैसे का इंतजाम करके उन्होंने बहन की शादी कर दिया।। बहन की शादी में अपनी हैसियत से ज्यादा उन्होंने खर्च करने का प्रयास किया।
इसी बीच उन का छोटा भाई शहर में पढ़ाई करना चाह रहा था।

पारिवारिक परिस्थितियां ऐसी नहीं थी कि खर्च का बोझ उठाया जा सके। शादी तो हो चुकी थीं लेकिन अभी उनके बच्चे नहीं हुए थे। ऐसे में घर का दबाव भी ज्यादा नहीं था और उन्होंने किसी भी स्थिति में भाई को पढ़ाने का संकल्प लिया।

वह भाई की खुशी में अपनी खुशी देखा करते थे। भाई ने भी मेहनत किया और उसका सिलेक्शन भी पालीटेक्निक कॉलेज में हो गया। लेकिन प्रकृति को और कुछ मंजूर था। एडमिशन के समय उसने यह स्वीकार कर लिया कि वह बीए कर रहा है जिसके कारण उसका पालिटेक्निक में एडमिशन नहीं हो सका।

वह बहुत मेहनती हैं। जब उनके पिताजी थे तो उनकी शरीर पहलवानों जैसी थी। किसी की क्या मजाल थी कि उनसे हाथ मिला कर चला जाए। पिताजी का साया उठ जाने के बाद धीरे-धीरे जिम्मेदारियों के बोझ से उनका शरीर ढलने लगा।

जिम्मेदारियों के बोझ से बड़े-बड़े सूरमा का जीवन ढल गया। उन्होंने अपने भाई को कभी यह आभास नहीं होने दिया कि पिताजी नहीं है पिता की संपूर्ण जिम्मेदारी उन्होंने बहुत बखूबी निभाया।

आज भी भाई के प्रति उनके समर्पण को भगवान राम से तुलना क्षेत्रों में की जाती है। जब उनसे कोई यह कहता तो वह कहते कि-” उसका भाग्य है मैंने कुछ नहीं किया। उसके भाग्य में लिखा था शिक्षा इसलिए उसे शिक्षा प्राप्त हो सकी।”

एक बार तो भाई की उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने अपना खेत भी गिरवी रख दिया था जो कि कई वर्षों तक गिरवी रखा रहा।

मनुष्य की सफलता में किसी न किसी का त्याग जरूर जुड़ा रहता है। बिना त्याग के जीवन में कुछ हासिल नहीं होता है। यदि कोई व्यक्ति यह कहे की उसने यह सब अपने पुरुषार्थ से हासिल किया है तो यह उसकी भूल है। पुरुषार्थ के साथ ही माता-पिता एवं परिवार का त्याग भी उसके साथ जुड़ा हुआ रहता है।

त्रेता युग में जो त्याग भगवान राम ने किया था। वही त्याग इस कलयुग में उन्होंने भी किया। उनका त्याग अतुलनीय है। बाद में जब उन्होंने भाई को बड़े होने पर खर्चे देने बंद कर दिए यह कहने लगे जब से भाई को खर्चा देना बंद कर दिया कमाई कम होने लगी।

सच है ऐसे भाई मिलना इस स्वार्थी दुनिया में असंभव है। आज भी भाई के प्रति स्नेह में कोई कमी नहीं आई है। उन्होंने अपने भाई को कभी घर का काम नहीं करने दिया।

समय के चक्र के साथ छोटा भाई अलग भी हो गया तो भी उसके खेत वगैरह के सारे कार्य आज ही वही कर देते हैं। जब कोई कहता है तो कहते हैं उससे तो बनता नहीं अरे है तो भाई ही।
सच है जिसने त्रेता युग के राम को ना देखा हो तो इस कलयुग में उनको देखकर कहा जा सकता है कि यह” कलयुग के राम” हैं।

 

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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