“प्रणाम गुरूवर।” घीसा ने अपने गुरू महेश्वराचार्य को विनम्र भाव से सिर झुकाते हुए कहा।
” आरे घीसा तुम, बहुत दिनों बाद आए, कहो कैसे आना हुआ, तुम्हारा?” गुरू महेश्वराचार्य ने आश्चर्य चकित होते हुए निश्छल भाव से पूछा।
“गुरूवर, आज गुरू पूर्णिमा है, सोचा दूर रहकर स्मरण करने से अच्छा है कि चल कर आपका साक्षात दर्शन कर लूँ।” घीसा ने अपनी इच्छा जाहिर करते हुए कहा।
“तुम्हारी सोच बहुत अच्छी है, ईश्वर भला करे, तुम्हारा। आजकल कर क्या रहे हो, तुम ?” उन्होंने जानना चाहा।
“गुरूवार, आपके जैसे सभी लोग हो जाए तो आदमी कुछ कर ले लेकिन कोई होता कहाँ है कि अभिलाषी व्यक्ति कुछ सके। वह भी अपने जीवन में ,,,,,,,,।” घीसा ने खेद जताया और आगे कुछ कहने से रूक गया।
“बस करो वत्स बस करो, तुम्हारे हृदय का दर्द मैं सब ,,,,, कुछ समझ गया। हमें खेद है कि आज भी द्रोणाचार्य स्वभाव के लोग जिंदा है। और ,,,,, और तुम पी एच डी नहीं कर सका, तुम्हारा संकेत कटे हुए अंगूठे की ओर है जो एक गुरू के लिए काफी लज्जा की बात है।” गुरू के आसन पर बैठे गुरू महेश्वराचार्य ने बाजारू गुरूओं की कलई खोल दी।

Vidyashankar vidyarthi

विद्या शंकर विद्यार्थी
रामगढ़, झारखण्ड

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