मोह | Kavita Moh
मोह
( Moh )
दौड़ रहा वीथिका-वीथिका,
सुख सपनों की मृगमरीचिका,
थोड़ी देर ठहर ले अब तू,
कर ले कुछ विश्राम।
भले पलायनवादी कह दें,
रखा नहीं कुछ मोह में।
सारी दुनिया नाच रही है,
जग के मायामोह में।
मोह बिना अस्तित्व नहीं है,
बात पुरानी नई नहीं है।
सारा जगत इसी पर निर्भर,
कितनों ने क्या खूब कही है।
गृहस्थाश्रम आधार सभी का,
मोह उसी का मेरुदंड है,
बिना मोह ना मिले किसी को,
क्षण भर का आराम।
भौतिकता-आध्यात्मिकता में,
थोड़ा सा ही करो समन्वय।
इसमें किंचित्मात्र न होता,
किसी रूप में समय अपव्यय।
याद रहे बस इतना सा ही,
एक हाथ ना बजती ताली।
करो समर्पण क्षण भर प्रभु ढिग,
जो हैं इस बगिया के माली।
जो माया से मोह न करते,
प्रभु से कभी नहीं मिल सकते,
नहीं जानते, माया में ही,
माया पति प्रभु राम।
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)