किसी को भूलना | Kisi ko Bhulna

किसी को भूलना

( Kisi ko bhulna )

कभी कभी की ज़रूरत को अहमियत न कहें
किसी को भूलना तो जुर्म है सिफ़त न कहें

कहेंगे ठीक तो ख़स्ता समझ ले कैसे कोई
गुज़र है हश्र के जैसा तो ख़ैरियत न कहें

अधूरा रब्त है सूखा हुआ ये फूल जनाब
बड़ा सहेज के रक्खे हैं ख़्वाब, ख़त न कहें

बहक गए तो इज़ाफा-ए-ज़ब्त कीजे हुज़ूर
नशा-ए-हुस्न को इतना ग़लत सलत न कहें

अज़ीज़ है दिया उनका हर इक निशां मुझको
है ग़म तो ग़म ही सही उनको मसलहत न कहें

बस अपने काम से रखती है काम जो दुनिया
बताओ क्या कहें जो ओछी तर्बियत न कहें

हयात दर्स दिए जा रही थी हमको ‘असद’
सो उसके दर्स पे करने को दस्तख़त न कहें

असद अकबराबादी 

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