क्या आचार डालोगे रूप का | Kya Achar Dalogi Roop ka
क्या आचार डालोगे रूप का
आज समोसा बोला कवि से,क्यों इतना घबड़ाते हो।
मिलाकर चटनी,खट्टी मीठी,अपना स्वाद बढ़ाते हो।
मेरी कैसी दुर्गति होती,क्या तुम कभी लिखपते हो।
देख तड़पता मुझको तलते,अपना हाथ बढ़ाते हो।।
पहले पानी डाल मजे से,घूंसे से पिटवाते हो।
हाथों से फिर नोच नोच कर,बेलन से बेलवाते हो।
हरा लाल मिर्चों की संगति,मसाला संग भुनवाते हो।
गरम कड़ाही में डलवाकर,गरम तेल में तलवाते हो।
गोरे को भूरा करवा कर,अपना रंग बनवाते हो।
रायता चटनी छोला सब मिल,मेरा दाम बढाते हो।
नोच नोच कर खाते बाबू,कैसा स्वाद बनाते हो।
मेरा जीवन मिट जाता है,अपना मान बढ़ाते हो।।
कवि बोला सुन भाई समोसा,गोरा रंग किस काम का।
सोना भी तपता है आग में,तब होता कुछ काम का।
तुमको खाकर भूख मिटाते,तब गाते कवि नाम का।
गोरे से भूरे अच्छे हो,आते खाने के काम का।
हम सब यदि न खायेंगे तो,क्या आचार डालोगे रूप का।
सुनकर समोसा बोला कवि जी,ऐसा खाना किस काम का।
पहले खाते स्वाद बढ़ाकर,फिर कोसते भगवान का।
किसी को उल्टी किसी को खांसी,या आंसू किस काम का।
डाक्टर साहब से मिल कहते,पेट दर्द भगवान का।
खा लो रोटी और सब्जी,स्वाद मिले इंसान का।
खाकर दिन का सड़ा समोसा,दोष दो भगवान का।।
अवधेश कुमार साहू”बेचैन”
हमीरपुर(यूपी)