महान क्रियायोगी थे : लाहिड़ी महाशय
लाहिड़ी महाशय का जन्म 30 सितंबर 1828 ई को एक धर्मनिष्ठ प्राचीन ब्राह्मण कुल में बंगाल के नदिया जिले में स्थित घुरणी ग्राम में हुआ था। इनका पूरा नाम श्यामाचरण लाहिड़ी था।
तीन-चार वर्ष की आयु में ही वे प्रायः बालू में केवल सिर बाहर और अन्य सारा शरीर बालू के अंदर रखते हुए इस विशिष्ट योगासन में बैठे दिखाई देते थे। इनके पिता का नाम गौर मोहन लाहिड़ी एवं मां का नाम श्रीमती मुक्तकाशी था।
बालक लाहिड़ी ने काशी की पाठशाला में हिंदी और उर्दू की पढ़ाई की। उन्हें संस्कृत, बंगाली, फ्रेंच तथा अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान था। वेदों का वह गहरा अध्ययन करते थे और विद्वान ब्राह्मणों की शास्त्र चर्चाओं को मन लगाकर सुनते थे।
बचपन से ही श्यामाचरण दयालु, विनम्र और साहसी थे जो कि अपने साथियों में अत्यंत लोकप्रिय थे। उनका शरीर सुडौल, स्वस्थ तथा बलिष्ठ था। तैराकी तथा शारीरिक पटुता के अनेकों कार्यों में वह निष्णात थे।
इनका विवाह सन 1846 में श्री देवनारायण सान्याल कि पुत्री काशी मणी के साथ हुआ । काशी मणी देवी एक आदर्श भारतीय गृहणी थी । 33 वें वर्ष में हिमालय में रानीखेत के पास उनकी मुलाकात अपने महान गुरु बाबा जी से हुई और उनसे उन्होंने क्रिया योग की दीक्षा मिली।
वे साधना के उच्च स्थिति में होते हुए भी सामान्य रूप से पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करते रहे। उन्होंने परिवार को बाधक नहीं बल्कि साधक माना है ।
उन्होंने जीवन के अंतिम क्षण तक पारिवारिक बंधन में बंधे रहे। व्यावहारिक रूप से उन्होंने क्रिया योग की साधना को जनसाधारण में प्रसारित करने का प्रयास किया।
क्रिया योग वस्तुत: एक विशिष्ट एवं अत्यंत उच्च स्तरीय योगाभ्यास है। क्रिया योग के संदर्भ में स्वामी योगानंद कहते हैं कि -” क्रिया योग एक सरल मन: कायिक प्रणाली है।
जिसके द्वारा मानव रक्त कार्बन से रहित तथा ऑक्सीजन से परिपूर्ण हो जाता है । उसके अतिरिक्त ऑक्सीजन के अणु जीवन प्रवाह में रूपांतरित होकर मस्तिष्क और मेरुदंड के चक्रो की नव शक्ति से पुनः पूरित कर देते हैं।”
लाहिड़ी महाशय जी ने गीता पर भी अद्भुत टीका लिखी है।
इनकी गीता की आध्यात्मिक व्याख्या आज भी प्रमुख रूप से शीर्ष पर विराजमान है । उन्होंने वेदांत, शंकर, वैशेषिक, योग दर्शन और अनेकानेक संहिताओं की व्याख्या भी प्रकाशित की है।
इनके द्वारा प्रवर्तित क्रिया योग प्रणाली की प्रमुख विशेषता यह है कि गृहस्थ मनुष्य भी योगाभ्यास द्वारा चिर शांति प्राप्त कर योग के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ हो सकता है ।
उन्होंने अपने सहज आडंबर रहित जीवन से यह प्रमाणित कर दिया था। धर्म के संबंध में बहुत अधिक कट्टरता के पक्षपाती नहीं होते हुए भी वे प्राचीन रीति नीति का पूर्णतया पालन करते थे।
शास्त्रों में उनका विश्वास अटूट था। अपने गुरु से प्राप्त क्रिया योग की दीक्षा वे हिंदू, मुसलमान, ईसाई सभी को बिना किसी भेदभाव के दिया करते थे ।
वह अन्य धर्मावलंबियों से कहा करते थे कि आप अपनी धार्मिक मान्यताओं का आदर और अभ्यास करते हुए क्रिया योग द्वारा मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।
मुख्यत: क्रिया योग की विधि केवल दीक्षित साधकों को ही बताई जाती है । यह विधि पूर्ण रूप से शास्त्रोक्त है और गीता उसकी कुंजी है । गीता में कर्म, ज्ञान और सांख्य सभी प्रकार के योग हैं और वह इतने सहज रूप में व्याप्त है कि जाति और धर्म कभी भी उसमें बाधक नहीं बनते हैं।
लाहिड़ी महाशय अक्सर अपने शिष्यों से और भक्तों से घिरे रहते थे । वह निरंतर अपने भक्तों तथा शिष्यों पर अपने अनुदानों की वर्षा किया करते ही रहते थे । उनके मुख्य शिष्यों में पंचानन बनर्जी वरदाचरण, रामदयाल, मजूमदार आदि थे ।
लाहिड़ी महाशय एक उच्च कोटि के योगी साधन थे। वे मरे भी तो योगी साधक की भांति । उनके सचेतावस्था से इस दुनिया से जाने के बारे में स्वामी केशवानंद जी ने परमहंस योगानंद को बताया कि-” वह मेरे सामने प्रकट हुए। जब मैं अपने आश्रम में बैठा था । अभी बनारस जाओ कहकर वे चले गए।”
मैंने तुरंत बनारस के लिए ट्रेन पकड़ी । अपने गुरु के घर पर मैंने सैकड़ो लोगों को उपस्थित पाया। घंटों उस दिन गुरु जी ने गीता को समझाया । फिर उन्होंने हमसे कहा -” मैं घर जा रहा हूं” दुख में सुबकना एक धारा की तरह फूटा ।
‘सुखद रहो मैं पुनर्जीवित होऊंगा’ यह कहने के पश्चात लहड़ी महाशय ने अपने शरीर को गोल घुमाया और उत्तर की ओर पद्मासन में बैठ उन्होंने महासमाधि ले ली । वह शुभ दिन 26 सितंबर ,1895 ईस्वी थी।
आज वें नहीं है परंतु उनके द्वारा जो क्रिया योग का व्यवहारिक ज्ञान दिया गया है उसके लिए सदैव याद किए जाते रहेंगे।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )