नक्सली हिंसा और भारत
नक्सली हिंसा और भारत

निबंध : नक्सली हिंसा और भारत

(Naxalite violence and India : Essay In Hindi)

 

भूमिका: (Introduction) : –

नक्सली हिंसा की चुनौती से आज पूरा देश जूझ रहा है। भारतीय नक्सली हिंसा भारत की आंतरिक सुरक्षा पर प्रश्न खड़ा करता है। लाल गलियारे का विस्तार दिन-ब-दिन बढ़ रहा है।

जिससे नक्सलियों का जाल मजबूत होता जा रहा है। आजकल तो ऐसे उग्र अराजक व्यक्ति समूह को मजाकिया अंदाज में नक्सली कह दिया जाता है।

लेकिन आज नक्सली आंदोलन एक गंभीर वास्तविकता बनता जा रहा है। नक्सली गतिविधियां हमारे देश के 20 राज्यों के 223 जिलों के 2000 थानों में फैला है।

जिसमें झारखंड, आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल प्रमुख रूप से शामिल है। नक्सलवादी या माओवादी आंदोलन असम पंजाब अथवा जम्मू कश्मीर की तरह अलगाववादी के अनुरूप नहीं हैं जो भौगोलिक या भाषाई आधार पर अपने अलग होने की मांग कर रहे हैं।

देश के लगभग छठे भाग पर नक्सलियों ने अपना नियंत्रण जमा लिया है। धीरे-धीरे इनके पैठ और मजबूत होती जा रही है।

सच कहा जाए तो नक्सली आंदोलन और आतंकवाद की सक्ल अख्तियार कर ले रहा है। जिसे हवा देने में हमारे पड़ोसी देश के भी नकारात्मक भूमिका रही हैं।

भारत मे नक्सलवाद पनपने का कारण ( Cause of Naxalism in India ) :

भारत में नक्सली समस्या पनपने के कई कारण रहे हैं, जिनमें प्रमुख रूप से सामाजिक न्याय, समानता की कमी, सरकारी स्तर पर समस्याओं की उपेक्षा तथा उन लोगों के हकों पर डाका आदि।

नक्सलवाद से जुड़ा एक सच यह भी है कि यह आदिवासी क्षेत्र में अधिक बनता है, जो कि एक गम्भीर पहलू है जिस पर ध्यान देना जरूरी है। दरअसल आदिवासी बहुल क्षेत्र भारी पैमाने पर खनिज संपदा वाला क्षेत्र है।

आदिवासियों ही ही हमारे राष्ट्रीय आबादी के सबसे अधिक हाशिए पर धकेल दिया गया। ये लोग पिछड़े हुए स्थितियों में वन संपदा के प्राकृतिक व पारंपरिक उपयोग पर जीवित है।

औपनिवेशिक काल में वनक्षेत्र और वन संपदा पर उन्हें कोई मालिकाना हक नहीं दिया गया था। लंबे समय से उन्होंने अपने अस्तित्व की रक्षा और अपनी संस्कृति को अपने स्तर पर अपनी पहचान बनाए रखने के लिए अनगिनत लड़ाइयां लड़ी है।

सरकार द्वारा उनके विकास और मुख्य राष्ट्रीय जीवन धारा में शामिल करने के लिए समुचित प्रयास नहीं किए हैं।

विकास के नाम पर सरकारें उन्हें विस्थापित और वंचित करती रही हैं  पिछले कुछ सालों में उनके पक्ष में भले ही कुछ कानून लाये गए हैं और वन संपदा पर उन्हें मालिकाना हक दिलाने के लिए कानूनी पहल शुरू हुई है।

लेकिन वास्तविकता में जमीदारों, ठेकेदारों और बिजनेस मैन के स्वार्थ के चलते उपेक्षा बहुत ज्यादा होती है।

बता दे ये आदिवासी स्वयं स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया और कुर्बानी दिए है। बिरसा मुंडा जैसे साम्राज्य विरोधी लड़ाई के इतिहास में वह गौरवशाली स्थान रखते हैं।

आज के भूमंडलीकरण के दौर में कॉर्पोरेट जगत की कई कंपनियां विशाल क्षेत्र की खनिज संपदा पर अपनी नजर गड़ाए हैं। सरकार उदारीकरण और संबंधित आर्थिक सुधारों के तहत पहले से ही संकटग्रस्त क्षेत्र और संप्रदाय से अधिक दोहन का मन बना चुकी है।

छोटी-बड़ी विकास परियोजना के सिलसिले में बड़े पैमाने पर विस्थापन की समस्या देश के अधिक काफी लोग जूझ रहे हैं। उनका समुचित निदान अभी तक नहीं हो पाया है।

सरकार के नीति निर्धारकों को यह बात समझ लेनी चाहिए कि आदिवासी विद्रोह की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है और बाहरी घुसपैठ उनके संघर्ष को राजनीतिक रूप से खतरनाक में दे सकते हैं।

सरकारी आदिवासी क्षेत्र के विकास के लिए वादे करती है। लेकिन उनके सबसे चिंतित पहले यह है की सबसे बड़ी जरूरत उनके अधिकारों की रक्षा है।

अगर जमीन का मालिकाना हक ही नही होता तो आदिवासी कल्याण की योजनाओं का कोई महत्व नहीं रह जाता है।

दूसरी तरफ सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज न होने की वजह से आदिवासियों की जमीन छीनने की आशंका अधिक रहती है। सरकार द्वारा झूम कृषि पर प्रतिबंध लगाने से आदिवासियों की समस्याएं बढ़ गई।

वर्तमान स्थिति ( Present situation) :

पिछले कुछ सालों में नक्सली हिंसा और मारकाट बढ़ गई है नक्सली आंदोलन और आतंकवाद का रूप धारण करता जा रहा है। नक्सलियों ने देश के सक्रिय आतंकवादी संगठनों से गठजोड़ कर लिया है जो कि चिंता का विषय है।

हमारे पड़ोसी देश जैसे चीन, पाकिस्तान इस समस्या को भयावह बनाने में नकारात्मक भूमिका निभा रहे हैं। इनके द्वारा नक्सलियों को मदद पहुंचाने की पुख्ता जानकारी भारत की सुरक्षा एजेंसियों के पास है।

इस तरह से हम कह सकते हैं कि यह दुर्भाग्य का विषय है कि हमारे पड़ोसी देश हमारे पेट में छूरा भोंक रहे हैं। आज तो पुलिस थानों पर हमले किए जा रहे हैं। जिले के कारगर को लूटा जा रहा है। खूंखार तरीके से राज्य मशीनरी के प्रतिनिधियों पर हमला हो रहा है।

नक्सली हिंसा का दमन पुलिस और सुरक्षा बल के जरिए नहीं किया जा सकता। इस मर्ज की एक ही दवा है कि ऐसा विकास किया जाए जिसमें आदिवासियों, पिछड़ों और वंचितों को समुचित भागीदारी सुनिश्चित हो और उन्हें यह न लगे कि उन्हें हल्के में लिया जा रहा है।

सरकार अब इस पर ध्यान देना शुरू कर दी है। सरकार इन बातों को ध्यान में रखकर एक संबंधित कार्यक्रम के तहत 83 आदिवासी और पिछड़े जिलों के विकास हेतु कार्य कर रही है।

इसे प्रभावी बनाने के लिए स्कूलों के लिए भवन, आंगनवाड़ी केंद्र, पेयजल की उपलब्धता, ग्रामीणों को पंचायत भवन, सामुदायिक केंद्र, कौशल निर्माण हेतु प्रशिक्षण, ग्रामीण विद्युतीकरण, बहुउद्देशीय चबूतरे का निर्माण जैसे कई गतिविधियां चालू की गई है।

रोजगार गरीबी और नक्सलवाद से खत्म करने का एक बेहतरीन हथियार है। इसे ध्यान में रखते हुए सरकार द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के अंतर्गत 3 लाख युवकों को रोजगार प्रदान करने का लक्ष्य रखा गया है।

इसी तरह महिला स्वयं स्वयं सहायता समूह के जरिए व सार्वजनिक निजी सहभागिता पहल की शुरुआत की गई है।

निष्कर्ष  (Conclusion) :-

सरकार द्वारा समस्या से प्रभावित क्षेत्र के लिए काम हो रहे हैं। एजेंसी परस्पर सहयोग और सोने की दिशा में काम कर रहे हैं। जिससे सरकार द्वारा लागू की गई योजनाएं पहल का सर्वोत्तम परिणाम मिल सके।

नक्सलवाद से लड़ने के लिए इन लोगों के विकास स्थानीय लोग के विकासात्मक कार्य में शामिल करना होगा। यह विकासात्मक कार्य क्षेत्र के पिछड़ेपन को दूर करने में मददगार होंगे।

इन्हीं राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करने और लोकतांत्रिक संस्थाओं के माध्यम से अपनी बात रखने के लिए प्रेरित करना चाहिए। तभी भारत से नक्सलवाद की समस्या को निष्प्रभावी बनाया जा सकता है।

लेखिका : अर्चना  यादव

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