इंसानियत के पैमाने पर एक लंबे समय तक दुनिया में रहा जा सकता है लेकिन बे-इंतिहाँ दुश्मनी करके धरती और आकाश में टिकना मुश्किल है। रूस और यूक्रेन का युद्ध एक लम्बे अरसे से कुछ इसी तरह से चल रहा है वहीं दूसरी तरफ इजराइल और गाजा का युद्ध हमारी मानवता तथा विश्व बाजार को टुकड़े-टुकड़े कर रहा है।

दिनोंदिन महंगाई सुरसाडायन की तरह मुँह बढ़ाती जा रही है। हर सामान्य तथा गरीब तपके का आदमी युद्ध बंद होने की दुआ कर रहा है। इसी तरह से यदि धरती पर युद्ध अनवरत चलते रहें तो इस तरह के जीने में क्या लज्जत है या इस तरह की धरती मिल भी जाए तो क्या मतलब? हर किसी के जीने में एक लज्जत होनी चाहिए।

सामान्य नागरिकों के साथ-साथ छोटे-छोटे मासूम बच्चों का मारा जाना तथा उनका खिलौना रक़्त-रंजित होना हमारी किस तरक्की को परिभाषित करता है?

जबकि दुनिया प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध देख चुकी है।जिन मखमली घासों पर नन्हें-मुन्ने दौड़ते थे, मिसाइलों ने उसे श्मशान में तब्दील कर दिया। महिलाओं की इज्जत को किस तरीके से रौंदा गया, उनकी नृशन्स हत्याएँ की गईं, उन्हें क्रूर दंड दिया गया, ये किस काल खण्ड में वापसी की तैयारी चल रही है?

कौन दूर बैठा इस तरह के चक्रव्यूह की रचना कर रहा है? क्या हमारी कुदरत हमारी दृष्टि को मात्र युद्ध देखने के लिए बनाई है? न बाबा,न ! कुदरत तो हमारी दृष्टि एक खूबसूरत दुनिया देखने के लिए प्रदान की है। खून से लथपथ और शवों पर दिनरात आँसू बहाने तथा सोग मनाने के लिए नहीं बख्शी है।

लोग मिसाइलों से एक दूसरे के आसमानों को धुंआ -धुंआ कर रहे हैं। नेत्र हमें इसके लिए भी नहीं मिले कि जंग की भट्टियों में जिन्दा लोगों को जलते देखते रहें। लोरी भूल चुकी माँयें अपनी आँखों को रो-रो के कब तक सुजाती रहें?

विनाश और मृत्यु का ये सिलसिला कब थमेगा ताकि मासूम बच्चे रंग-बिरंगी तितलियों के पीछे भाग सकें। सूरज, चाँद-सितारे हमारी धरती को चूँमने आएँ। बारूद के धुंवें से कोई न घबड़ाए।

युद्धरत लोगों को मीठी करवट बदलने का वक़्त मिले। दरीचे से उसे देखने का मौका तो मिले। कलियाँ उसकी सुगंध से शर्माएँ तो शर्माएँ लेकिन वो चौबारे में अपनी तशरीफ़ तो रखे।

जुदाई की भी अपनी एक हद होती है। जवान लड़कियों के हाथ पीले हों। शहनाइयों की गूँज से आँगन झूम उठे। किसी मेंहदी की पत्तियाँ को वर्षो-बरस न इंतजार करना पड़े कि वो किसी नई नबेली दुल्हन के हाथों की शोभा बढ़ाने से पहले दम तोड़ दीं। आँसू की जगह आँख को हसरत मिले।

लोग बाग दिनरात युद्ध की चर्चा न कर उसकी कच्ची उम्र की बात करें। बहारें इंसानियत की शाखों पर इस कुछ कदर खिलें कि फूलों के अलावा कलियाँ भी महफूज रहें। विकृत चेहरे कभी तसव्वुर में न आएँ कि नींद में खलल पड़े।
सुबह का मुकद्दर भी इतना हसीन हो कि हर किसी को चैन आए।

अश्क की दौलत भी लूटने से बाज आओ जंग लड़नेवालों ताकि शेष बचे आँसु तुम्हारे सोग मनाने में काम आए।
युद्ध की क्रूरता को समझने के लिए युद्ध के दागों को समझना जरुरी होगा।

दुनिया में अमेरिका एक ऐसा देश है जिसकी मंशा ये बनी रहती है कि युद्ध कहीं न कहीं चलता रहे लेकिन उसकी ज़मीन से दूर। अपने मित्र नाटो देशों के साथ युद्ध का जो उन्माद वो खड़ा करता है, किसी की भी रुह काँप जाती है।

उसकी दादागिरी से अखिल विश्व परेशान है। खून से सने झंडे लहराना क्या दुनिया के घाव को कम करेगा? यहाँ समझनेवाली बात ये है कि शान्ति सत्य में निवास करती है, मिसाइलों में नहीं।

एक दौर था जब शाम ढले परिन्दे अपने घोंसलों की तरफ रुख करते थे,तो आने पर डालें सलीके से झुक जाती थीं इस तरह न कुछ बोलते हुए भी वो परिंदों का इस्तक़बाल करती थीं लेकिन हम मंगल -चाँद पर राज करनेवाले लोग एक दूसरे देश का सम्मान, उसकी सीमाओं की मर्यादा का ध्यान नहीं दे रहे हैं उल्टे इन सब चीजों का उल्लंघन कर रहे हैं अर्थात दिनोंदिन हम अपनी नैतिकता क्यों खोते जा रहे हैं? दुनिया मोहब्बत से चलती है, युद्ध से नहीं।

गौरतलब बात ये है कि संयुक्तराष्ट्र संघ की स्थापना अखिल विश्व में अमन क़ायम रहे,इसके लिए 25 अक्टूबर,1945 को हुई थी लेकिन वह इतना फिसड्डी निकला कि वीटो पावरवाले देशों के साथ-साथ कई ऐसे देश हैं जो उसे कुछ समझते ही नहीं। रूस-यूक्रेन, गाजा-इजराइल युद्ध रोकने के लिए यू.एन.ओ. दया की भीख मांग रहा है।

गिड़गिड़ाने के सिवाय उसके पास और कोई कुव्वत नहीं। गौरतलब है कि आज दुनिया के कई देश परमाणु संपन्न हो चुके हैं, हाइड्रोजन बमों में आए दिन इजाफा हो रहा है। इस तरह कोई देश किसी के कहने में नहीं है।

दिनोंदिन दुनिया मनमानी और बेनूर होती जा रही है। इस पर लगाम कौन लगाएगा? कुल मिलाकर संयुक्त राष्ट्र संघ मुझे एक शिखण्डी जैसे नजर आ रहा है। उसका तमाशबीन बनकर रहने के बजाय, उसे भंगकर एक नये सिरे से और आजकी जरुरत के मुताबिक पुनः निर्माण किया जाना चाहिए।

यहाँ देखने वाली बात यह है कि सन 2030 तक विश्व के परमाणु बमों का प्रोडक्शन ग्रोथ 73 प्रतिशत बढ़ जाएगा, ऐसे में यू.एन.ओ. की जवाबदारी और ही बढ़ जाएगी। इस तरह का संसार हम लेकर क्या करेंगे- जहाँ खून से लथपथ वादियाँ, कराहती मानवता, लंगड़ी-लूली अर्थ व्यवस्था,चीख- चीत्कारों से भरा गगन,ये किस काम का ?

हमें तो हँसता-खेलता संसार चाहिए जहाँ बागों में ढेर सारी रंग-बिरंगी तितलियाँ उड़ रही हों,जहाँ सुर्ख होंठों से लोग नज़ारे चुरा रहे हों, जहाँ गम नहीं,आशिक़ी की बयार बह रही हो, जहाँ कोई बेरोजगार न हो, हरेक के सिर पर छोटी ही सही एक छत हो, कोई यतीम,मुफलिस भूखा न सो रहा हो, जहाँ स्कूल-कॉलेज में छात्र-छात्राओं की चहलकदमी हो, जहाँ नदियाँ मस्ती की चाल में कल -कल बहती अपने गंतव्य को जा रही हों, जहाँ पर्वतों के सिरों पर बारूद नहीं, मिसाइल नहीं बल्कि जवाँ रात चाँदनी ओढ़कर सो रही हो,जहाँ फल-फूल से बाग़-बगीचे इतरा रहे हों, जहाँ कल-कारखाने सोना-चाँदी उगल रहे हों, जहाँ लोग अल्पायु नहीं बल्कि दीर्घायु व नीरोगी हों, जहाँ नफरत नहीं बल्कि अम्न और मोहब्बत की दरिया बह रही हो, जहाँ का आकाश बमों-एटम-बमों तथा मिसाइलों से न अच्छादित होकर बल्कि अमृत की बारिश करनेवाले अब्र से उमड़-घुमड़ रहा हो, जहाँ दरख्त की शाखाएं और उसकी पत्तियाँ अपनी जड़ों का सजदा कर रही हों हमें ऐसा संसार चाहिए प्रभु! हमें ऐसा संसार चाहिए।

Ramakesh

रामकेश एम यादव (कवि, साहित्यकार)
( मुंबई )

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