सफलता का राज | Safalta ka Raj
नीमरू जब 12– 13 वर्ष का था तभी उनके पिताजी उसे छोड़ कर चले गए। वैसे तो उनका नाम सुरेंद्र कुमार था लेकिन दुबले-पतले होने के कारण उन्हें निमरू ही कहते थे ।
बचपन में वह अपने मामा के घर रहते थे। मामा के घर उनकी खूब दादागिरी चलती थी। दुबला पतला है तो क्या हुआ किसी की क्या मजाल कि उन्हें पछाड़ कर कोई चला जाए।
मामा के घर खाने पीने की खूब आजादी थी। गाय भैंस दूध देती थी वह कच्चा ही दूध पी जाते थे। परंतु भगवान को उसकी खुशी बर्दाश्त नहीं हुई और पिता का साया उनके सिर से उठा लिया वह परिवार में सबसे बड़े थे । सबसे छोटा भाई तो अभी मां की गोद में ही खेल रहा था।
परिवार में मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा । मां ने लोक लज्जा छोड़ कर अपने खेत के पास ही ढीलाही लगाने लगी ।जहां पर गांव के किसान लोग अनाज बेचते थे। इससे जो कुछ इनकम होती थीं उसी से परिवार का खर्चा चलता परंतु इतने से क्या होता? घर की परेशानी को देखकर उन्होंने परदेश जाने का विचार बनाया।
मां की इच्छा थी कि बेटा कुछ पढ़ लिख ले परंतु घर की स्थिति साथ नहीं दे रही थी इसलिए उसने घर छोड़ने का पक्का इरादा कर लिया । वह दिल्ली गए जहां पर उनके दादाजी रहते थे । पर मुसीबत के वक्त अपने भी साथ छोड़ जाते हैं।
जब कोई काम ठीक नहीं हो पाया तो एक ड्राइवर के साथ रहने लगे । ड्राइवर अच्छा इंसान था वह उसे ज्यादा डांट डपट नहीं लगाता था। वह भी उस्ताद को हर संभव खुश रखने का प्रयास करते। इस तरह से धीरे-धीरे 2 वर्ष गुजर गए। उस्ताद निमरू से इतना खुश रहने लगा कि उसे धीरे-धीरे ड्राइवरी सिखा दिया कुछ दिनों में वह भी माहिर हो गया।
एक दिन आर्ट गैलरी के मालिक की गाड़ी चलाने का ऑफर आया तो वह वहां जाने की इच्छा उस्ताद से कहीं। उस्ताद को तो वह अपना लगने लगा था इसलिए दबे मन से उसने हां कर दी।
यहां में उसकी कर्मठता रंग लाई। साहब उससे इतना खुश हुआ कि वह जब भी कहीं पार्टी में जाता उसे जरूर ले जाता। वह भी बड़े-बड़े लोगों के साथ हुए बड़े शानो शौकत से रहने लगे। क्या मजाल कि उसके कपड़े की एक भी क्रीज मैली हो एवं जूतों तो चमचमता रहता ।
फिर भी वह घर पर मां की हालत को जानता था। इसलिए नियमित पैसे भी घर भेजता था एवं पहलवानी का शौक तो उसे बचपन से ही था। इसलिए बीच में वह पहलवानी तो नहीं कर पाए परंतु अब जब घर के हालत ठीक हो रहे हैं उसकी दबी इच्छा जागृत हो गए ।
वह आर एस एस की लगने वाले कक्षा में जाने लगे। धीरे-धीरे शरीर हष्ट पुष्ट होने लगा ।समय जातें देर कहां लगती । धीरे-धीरे 18 वर्ष के छोरा हो गया तो मां को बहू की चिंता सताने लगी गांव के ही पास में उनका रिश्ता भी पक्का हो गया। लड़की अपने मां-बाप की इकलौती संतान थीं ।
जिसके कारण वह परिवार में बहुल लाड प्यार से पली थी।ससुराल में भी उसे कोई कमी महसूस नहीं होने दी।पत्नी का साथ छोड़ उसे जाने की इच्छा नहीं हो रही थी फिर भी कर्तव्य उसे बुला रहा था।
पत्नी को अपने साथ रखना चाहता था परंतु उसकी इच्छा थी कि अपना घर हो तो अच्छा है । दिल्ली के आउटसाइड में जमीन सस्ती बिक रही थी । उसने साहब से बात किया जमीन का एक छोटा टुकड़ा खरीद लिया जमीन खरीदने के कारण कर्ज में डूब गया ।
वह मासिक किस्त कुछ जमा करने लगा ।इसी तरह छोटा भाई भी ड्राइवरी कर रहा था । यदि दोनों ड्राइवरी ही करते रहे तो कोई भी उन्नति नहीं कर पाएंगे। इसलिए एक टाटा 407 मालगाड़ी खरीदी ।परंतु भाग्य ने यहां भी साथ नहीं दिया ।
गाड़ी लड़ गए घाटा इतना हुआ कि लगातार कर्ज का बोझ बढ़ता ही गया ।अंत में गाड़ी को बेच देना पड़ा ।गाड़ी बेचने के बाद भी कर्ज चुकता नहीं हो सका । इसी बीच एक बैंक में जगह खाली थी । वह पुनः ड्राइवरी करने लगा। कर्ज तो बहुत बढ़ गया था।
तनख्वाह के अधिकांश पैसे कर्ज चुकाने में खर्च हो जाते । फिर भी वह हार मानने वाला नहीं था ।कर्ज चुकाने के बाद जो बचता उसी में पत्नी और वो रहने का प्रयास करते । परंतु सामाजिक कार्यों में अत्यधिक सहभागिता के कारण कोई न कोई मेहमान आता रहता।
उनकी पत्नी कभी कोई शिकायत नहीं करती । किसी से कहने से लोग हसेंगे परंतु कोई हाथ थोड़े ही बटा लेगा। इसी बीच निगम पार्षद का चुनाव आया। उन्हें भी राजनीति का चस्का लगा ।
वह चुनाव में खड़ा होना चाहते थे परंतु महिला सीट होने के कारण स्वयं खड़े न होकर पत्नी को उम्मीदवार बनाया । दिन रात की भाग दौड़ के साथ ही आर्थिक तंगी बढ़ती जा रही थी। चुनाव में भी असफलता हाथ लगी ।
जिससे जो कुछ संभलना था वह भी डूब गया। चुनाव में कुछ लोगों ने उदारता दिखाई। उन्होंने जो पैसे चुनाव में खर्च किया था नहीं लिया।
चुनाव में करारी हार के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और इसी बीच एक सोसाइटी बनाने का प्लान बनाया। इसमें भी कई लोग अड़चने लगा रहे थे। परंतु एक बार ठान लिया उसे तो करके ही दिखाना है ।उन्होंने सोसाइटी डाल दी ।
प्रभु कृपा से सोसाइटी चलने लगी । पहले जो लोग अड़चने लगा रहे थें अब वही कहने लगे बहुत अच्छा किया। दुनिया का दस्तूर ही ऐसा है कि पहले वह दुत्कारती है फिर तलवे चाटती है ।इसी बीच उन्होंने बच्चों के कल्याणार्थ स्कूल खोला ।
स्कूल चल निकला। पहले तो वह किराये में कमरा लेकर खोला था बाद में अपनी जमीन लेकर बनवा लिया।आज उनकी कर्मठता और कर्तव्य परायणता के कारण समाज में एक सफल पुरुष के रूप में जाने जाते हैं।
मनुष्य यदि कठिन परिस्थितियों में धैर्य ना छोड़े तो हर असंभव कार्य भी संभव कर सकता है। यदि हमें भी जीवन में सफलता प्राप्त करनी है तो कैसे भी विकट परिस्थिति हो बिना घबराए धैर्य के साथ मंजिल की ओर कदम बढ़ाना होगा तभी हम सफलता के स्वामी बन सकते हैं।
नोट – यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है ।आपको कैसे लगी जरूर बताइएगा।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )