Safedi ka Dard

सफेदी का दर्द | Safedi ka Dard

सफेदी का दर्द

( Safedi ka dard ) 

 

मैंने तो मांगी थी खुशियां मुफ्त की
वह भी तेरी दौलत के तले दब गई
दौड़ तो सकती थी जिंदगी अपनी भी
पर, वह भी अपनों के बीच ही उलझ गई.

लगाए थे फूल, सींचे थे बड़े चाव से
खिलकर भी महके पर बिक गए भाव से
नजरें भी झुक गईं, देखकर आसमानों को
हमने भी दफनाये जमीं मे ही अरमानों को..

झालरों ने छीन लिया, हक उजालों का
तारे टिमटिमाते रहे चांद भी चलता रहा
गिले दब गए, गले दबाए जाने की डर से
लड़खड़ाती रही लाठी, हांथ कांपता रहा….

खरीदी न गई दुनियां, मलाल उसी का रहा
खिलौने थे सस्ते,मिसाल उसी का रहा
चढ़ाए नही थे सीढियां, हमने कॉन्वेंट के
बालों की सफेदी मे हिसाब उसी का रहा..

चाहा था सोचना पर, फुरसत ही नही मिली
बंजर थी धरती, कलियां ही नही खिली
दौर मे दर्द से भी दर्द की यारी भली लगी
जा रहे छोड़ तुम्हे, बतानी बात भी भली लगी

 

मोहन तिवारी

 ( मुंबई )

यह भी पढ़ें :-

महफिल | Mehfil

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *