
सुमित की मां बहुत बीमार थी। पिताजी पहले ही गुजर चुके थे। वह अपनी मां से बहुत स्नेह रखता था। सुमित ने अपनी मां की बहुत ही हृदय से सेवा की। दिल्ली में वह कार्य करता था लेकिन उसे छोड़कर उसने मां की सेवा को अपना कर्तव्य समझा।
अब वह गांव में रहकर ही मां की सेवा के साथ घर की देखभाल करने लगा। उसके एक बुजुर्ग साथी थे मुखिया जी। उम्र में बहुत अंतर होते हुए भी विचारों के बहुत मेल था। जिससे वह देश समाज की चर्चा अक्सर किया करते थे।
एक दिन मुखिया जी ने कहा,– “देख बचवा ! माता-पिता के जीवित रहते ही सेवा करना चाहिए।मरने के बाद कुछ नहीं होता है। जीते जी मां-बाप की सेवा करना ही सच्चा श्राद्ध तर्पण है। जीते जी पानी न पूछे, मरे के बाद 56 भोग खिआवे। ”
उसने कहा,-” लेकिन भैया! हमारे समाज में तो कहा जाता है कि श्राद्ध तर्पण करने से स्वर्ग में उनका मिलता है।”
” अरे तुम! किस भ्रम में पड़े हुए हो! स्वर्ग नरक आखिर किसने देखा है। यह सब भोली भाली जनता को बेवकूफ बनाने का धंधा है। स्वर्ग नरक कुछ नहीं होता है। जो कुछ होता है यही होता है। इसलिए तुम अपनी मां की जितनी सेवा कर सकते हो करो।
यही तुम्हारा स्वर्ग नरक श्रद्धा तर्पण सब कुछ है।”
वह मुखिया जी की बात बड़े ध्यान से सुनता रहा।उसके मन में अनेक अनेक विचार घूमने लगे क्या श्राद्ध तर्पण सब ढकोसला है।
उसने मुखिया जी से पूछा,” मुखिया जी! महापात्र दान क्यों होता है। जिसमें लोग उपयोग की सारी सामग्री मरने के बाद दान में देते हैं। ”
मुखिया जी ने कहा,-” तुम किस दुनिया में जी रहे हो! यह सब खाने कमाने का धंधा है। किसी को देने से मरने वाले की आत्मा का कोई संबंध नहीं है। तुम अपनी मां की सेवा करो बस । मां के सुख में किसी प्रकार की कमी न होने दो ।
यदि जीते जी मां तुम्हारी खुश होकर तुम्हें आशीष दे दे तो यही सच्चा श्रद्धा तर्पण महापात्रा भोजन सब कुछ है।”
मुखिया जी की बात उसने अपने मन में गांठ बांध ली और अपनी मां की और खूब दिल लगा करके वह सेवा करने लगा। धीरे-धीरे 2 वर्ष बीत गए।मां खूब भली चंगी हो गई।
लेकिन एक बार फिर मां की तबीयत बिगड़ी। 10 -15 दिनों तक वह बिस्तर पर पड़ी रहे। उसने क्षेत्र के अच्छे से अच्छे डॉक्टर को दिखाया।लेकिन जो होना था वही हुआ मां ने अपना शरीर छोड़ दिया।
उसने मां को सामान्य वैदिक रीति से क्रिया कर्म कराया।
शुद्ध के दिन आर्य समाज के वैदिक विद्वानों को बुला कर हवन करवाया। मुखिया के बात उसके मन में बैठ चुकी थी।इसलिए उसने तेरही वगैरह कुछ नहीं किया ।
ना महापात्र को दान का कार्यक्रम रखा। बाद में कुछ लोग उसका विरोध करते रहे। लेकिन समय के साथ सभी शांत हो गए। उसके ऐसा करने से समाज में एक नई क्रांति का सूत्रपात होने लगा। जो युवा पीढ़ी समाज में व्याप्त अंध परंपराओं को नहीं मनाना चाहती थी वह उसके साथ जुड़ने लगीं।
वह समाज में लोगों से यही कहता,” जीवित माता-पिता की सेवा करना है सच्चा श्राद्ध तर्पण है। यदि जीते जी तुम्हारे माता-पिता तुमसे खुश हैं तो दुनिया के तुम सबसे सुखी इंसान हो। स्वर्ग नरक कहीं कुछ नहीं है। श्रेष्ठ कर्म ही स्वर्ग है और गलत कर्म ही नरक है।
जियत मां बाप को पानी न पूछे,
मरने के बाद 56 भोग खिलावे, इससे मूर्खतापूर्ण बात और क्या हो सकती है?
वह लोगों से यही कहता,”भैय्या!जीते जी जवन माई बाप के सेवा कईला। जवन चाहा आशीर्वाद पाई ला ।मरे के बाद कुछ नहीं होता है। कौन देखे हैं स्वर्ग नरक।”
धीरे-धीरे उसकी शिक्षा का प्रभाव क्षेत्र में होने लगा था। समाज में व्याप्त 13वीं और श्राद्ध तर्पण जैसे कुप्रथाएं लोग छोड़ने लगे थे। वह हृदय में शांति का अनुभव कर रहा था कि उसके पहल से सामाजिक कुप्रथाएं धीरे-धीरे खत्म होने लगी हैं।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )