ना शौक़, ना शौक़-ए-जुस्तुजू बाक़ी | Ghazal
ना शौक़, ना शौक़-ए-जुस्तुजू बाक़ी ( Na shoq-na- shoq-e -justaju baki ) ना शौक़, ना शौक़-ए-जुस्तुजू बाक़ी बस दीदार-ए-यार से रहा रु-ब-रु बाक़ी इस क़दर टूट कर नूर-ए-मुजस्सम को चाहना की रहे ना जिस्म में कोई क़तरा, कोई लहू बाक़ी कट रही है ज़िन्दगी अपनी ही रफ़्तार में सफर मगर हमारा रहा…