ना शौक़, ना शौक़-ए-जुस्तुजू बाक़ी
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ना शौक़, ना शौक़-ए-जुस्तुजू बाक़ी
बस दीदार-ए-यार से रहा रु-ब-रु बाक़ी
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इस क़दर टूट कर नूर-ए-मुजस्सम को चाहना
की रहे ना जिस्म में कोई क़तरा, कोई लहू बाक़ी
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कट रही है ज़िन्दगी अपनी ही रफ़्तार में
सफर मगर हमारा रहा हु-ब-हु बाक़ी
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खुदको ढून्ढ रहा हूँ बिखेर के खुद को में
किसके घर में है मेरी ये जुस्तुजू बाक़ी
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तलाश रहा हूँ में खुदको आइनो में
अब आइनो से राब्ता-ए-रु-ब-रु बाक़ी
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बदन के शिकस्त से दर-ब-दर हो निकल आया है ‘अनंत’
बचा ना कोई हिस्सा, रहा तो बस खुद से गुफ्तगू बाक़ी
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शायर: स्वामी ध्यान अनंता
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