हिन्दी साहित्य में स्त्री-लेखिकाओं की स्थिति व उपस्थिति
भारत में स्त्रियाॅं प्राचीन काल से लेकर साहित्य के जरिए अपनी अस्मिता को ढूॅंढने का प्रयास करती रही हैं। यह बात और है कि साहित्य के इतिहास में उनकी उपस्थिति न के बराबर मानी गई है।
अन्य साहित्य की भाॅंति स्त्री-साहित्य का जन्म कविता से हुआ है। सन् 1388 से 1545 तक के युग को स्त्री काव्य के आदिकाल के रूप में जाना जाता है। इस युग में सामंती व्यवस्था ह्रास की ओर जा रही थी।
सामाजिक आर्थिक तौर पर स्त्री की अधिकारविहीन स्थिति ने उसे ज्यादा से ज्यादा पुरुष के निर्भरता पर जीने के लिए मजबूर किया। बाल विवाह,बहुविवाह व परदे की प्रथा के कारण वह गुलामी की अवस्था में धकेल व भोग-विलास की सामग्री के रूप में परोस दी गई।
सामंती व्यवस्था ने जहाॅं स्त्री को चहारदीवारी में कैद करने की तैयारियाॅं मुकम्मल की वहीं स्त्रियों की ओर से प्रतिरोध सुनाई पड़ता है और इसी दौर में देशज भाषा में स्त्री-साहित्य का उदय भी होता है।
हिन्दी की पहली कवयित्री के संदर्भ में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान मीरा को पहली लेखिका मानते हैं पर मीरा से पहले भी उमा एवं पार्वती दोनों कवयित्रियों की कविताएं मिलती हैं। ये दोनों निर्गुणमार्गी कवयित्री हैं।
इसी परंपरा में आगे चलकर संत ज्ञानेश्वर की बहन मुक्ताबाई का नाम आता है। चौथी कवयित्री के रूप में झीमा चारणी का नाम आता है,जिन्होंने वीरगाथात्मक रचनाएं लिखीं। इस दौर की सबसे महत्वपूर्ण कवयित्री मीरा हैं। उनके काव्य में अपूर्व भाव विडवलता और आत्मसमर्पण का भाव है।
मीरा अभिजन वर्ग से थी। इसी की वजह से इस वर्ग की आंतरिक ज़िन्दगी से बखूबी वाक़िफ थी। अभिजन वर्ग के प्रति उनमें जबरदस्त घृणा का भाव था। भक्ति और माधुर्य तत्व के माध्यम से मीरा ने लिंगीय भेदभाव और सामाजिक वैषम्य दोनों को एक साथ चुनौती दी।
स्त्री के सामाजिक अधिकारों खासकर स्त्री के मन और तन पर स्त्री के स्वामित्व की वकालत करने वाली वह पहली भारतीय लेखिका हैं। इसी काव्यधारा के चरण में गंगाबाई, रत्नावली, शेख, रंगरेजन, सुन्दरकली, इन्द्रावती, शिवरानी चौबे, दयाबाई व सहजोबाई आदि के नाम उल्लेखनीय है।
आधुनिक काल में गद्य का आविर्भाव और अभिव्यक्ति के लिए एक और माध्यम उपलब्ध हुआ। कविता धारा अपनी दिशा में बहती रही किंतु गद्य के माध्यम से स्त्रियों ने अपना संघर्ष जारी रखा। हिन्दी कहानी हो या उपन्यास। दोनों विधाओं में लेखिकाओं की बराबर की साझेदारी है।
इस युग की प्रमुख लेखिकाओं में
बंग महिला अर्थात राजेंद्रबाला घोष,
यशोदा देवी,
प्रियंवदा देवी,
शारदा कुमारी देवी,
साध्वी प्रतिपाणा अबला,
सरस्वती गुप्ता,
हेमंत कुमारी चौधरी,
ब्रह्मकुमारी दुबे,
रुक्मिणी देवी,
हुक्मदेवी गुप्ता,
लीलावती देवी,
विमला देवी,
चौधरानी,
राजरानी देवी,
जनकदुलारी देवी,
श्रीमती मनोरमा देवी,
चन्द्रप्रभा देवी मेहरोत्रा
व शिवरानी देवी,
सुभद्रा कुमारी चौहान,
महादेवी वर्मा,
शिवानी,
कृष्णा सोबती,
उषा प्रियंवदा,
मन्नू भंडारी,
कृष्णा अग्निहोत्री,
मालती जोशी,
मंजुल भगत,
मृदुला गर्ग,
सुमन राजे,
चन्द्रकांता,
ममता कालिया,
प्रभा खेतान,
मैत्रेयी पुष्पा,
चित्रा मुद्गल,
नमिता सिंह,
सूर्यबाला,
मेहरुन्निसा परवेज़,
उषा किरण खान,
मृणाल पाण्डे,
नासिरा शर्मा,
सुधा अरोड़ा,
ऋता शुक्ला,
क्षमा शर्मा,
सारा राय,
मधु कांकरिया,
गीतांजलिश्री,
उर्मिला शिरीष,
जया जादवानी,
अलका सरावगी,
अनामिका
व डॉ निशानन्दिनी आदि का नाम उल्लेखनीय हैं।
डाॅ. सारिका देवी
(विषय-स्त्री-विमर्श/हिन्दी)
डाॅ.राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय
अयोध्या,उत्तर प्रदेश।