
आज ही के दिन 31 जुलाई 1880 को कथा सम्राट धनपत राय श्रीवास्तव अर्थात मुंशी प्रेमचंद जी का जन्म हुआ था।अपनी सरलता,मौलिकता से मन मोह लेने वाली कहानियों, उपन्यासों के रूप में मुंशी प्रेमचंद जी आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं। यूँ तो उनकी बहुत सी कहानियों, उपन्यासों ने मेरा मन मोहा है ऐसी ही उनकी एक कहानी #नमक_का_दरोगा के बारे में लिखना चाहूंगा।
1925 में लिखी गई यह कहानी आज भी लोगों के जहन में बसी हुई है। यह वह समय था जब गोरों ने भारतीयों पर नमक कर लगा रखा था। भारत मे बहुतायत में नमक पाए जाने के बावजूद इसके उत्पादन पर प्रतिबंध लगा था। यह विदेशों से आयात किया जाता था। नमक कर का अपना इतिहास है ।
मुगल काल मे हिंदुओं से 5% जबकि मुस्लिमों से 2.5% नमक कर वसूला जाता था। यूँ तो 1882 में ही ईस्ट इंडिया कम्पनी को लाभ पहुंचाने हेतु नमक कानून बना दिया गया था परंतु समय समय पर अंग्रेजी हुकूमत द्वारा इसपर सख्ती ही की जाती रही। आसपास प्रचुर मात्रा में नमक होने के बावजूद हम नमक बना नही सकते थे बल्कि बिना गोरों की अनुमति के व्यापार भी नही कर सकते थे।
व्यापारियों को नीलामी प्रक्रिया से गुजारकर नमक के पट्टे आवंटित किए जाते थे और उनसे प्राप्त भारी भरकम राजस्व गोरों की जेब मे जाता था।पराधीन भारत यह सब देख,सुन,झेल रहा था।दर्द बढ़ता गया।हर दर्द की एक उम्र होती है।
आखिर आवाजें उठनी शुरू हुईं और नमक कानून के विरोध में गांधी जी अपने कुछ अनुयायियों के साथ साबरमती आश्रम से दांडी तक मार्च निकाल कर इस काले कानून के खिलाफ बिगुल फूंक दिया।यह 12 मार्च 1930 की घटना है।
अन्ततःकरीब 1 महीने के बाद 6 अप्रैल 1930 को नमक कानून तोड़ स्वाधीन भारत की मांग तेज कर दी गई। आवाजें तेज होती गयीं,कारवां बढ़ता गया।इतिहास ने दर्ज किया कि ज्यादतियों की बहुत ज्यादा उम्र नही होती।अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिलती गयी।अन्ततः1946 में नमक कानून को खत्म कर दिया गया।
कहानी ‘”नमक का दरोगा” उसी काल की है।तब नए नए बने नमक विभाग के दरोगा पद की भर्ती निकली थी। जब किसी प्रचलित,आवश्यक चीज पर हुकूमत द्वारा प्रतिबंध लगा दिया जाता है तब उसकी कालाबाजारी शुरू हो जाती है। उसी कालाबाजारी को रोकने के लिए दरोगा विभाग बना। यह “मलाई” का पद था। आप इसकी तुलना आज के RTO, इनकम टैक्स अधिकारी, किसी हाइवे किनारे,खनन क्षेत्र के आसपास अथवा भ्रष्ट इलाके के थाने के दरोगा से कर सकते हैं।
इसी नमक विभाग के”प्रतिष्ठित” दरोगा पद में नवयुवक मुंशी वंशीधर की नियुक्ति हो जाती है। मुंशी वंशीधर नई उम्र के,बेहद ईमानदार और कड़क हैं।हर हाल में सच्चाई के साथ खड़े रहने वाले। अभी नौकरी लगने के 6 माह भी न बीते थे कि दुनिया की सच्चाई से उनका पाला पड़ गया।
नमक की कालाबाजारी करते दातागंज के बेहद “प्रतिष्ठित”और सम्मानीय पंडित अलोपीदीन को इस नवयुवक ने रंगे हाथों पकड़ लिया।हर व्यक्ति के 2 चेहरे होते हैं। एक चेहरा वह जो दुनिया के सामने दिखता, दिखाया जाता है जबकि दूसरा चेहरा भी है जो कि स्याह होता है। पंडित अलोपीदीन अपने इलाके के सम्मानित व्यक्ति हैं।
पैसे,पावर से लबालब भरे हुए। दिन में उनका सफेदपोश व्यक्तित्व लोगों के सामने होता तो रात में वह नमक की कालाबाजारी करते थे।
कड़क वंशीधर से अलोपीदीन का सामना हुआ। अलोपीदीन के लिए यह कोई नई स्थिति न थी।उन्हें मालूम था कि इससे कैसे निपटा जाए।उन्होंने हमेशा की तरह माया का सहारा लिया परंतु मुंशी वंशीधर किसी और ही मिट्टी के बने थे। माया पर अटूट विश्वास रखने वाले पंडित अलोपीदीन अंततःईमानदारी से हार गए।वह नवयुवक वंशीधर के ईमान को डिगा न सके।
उन्हें बन्दी बना लिया गया।अगले दिन कोर्ट क्या शहर, कूचे,कस्बों में इसी बात की चर्चा थी। दुनिया यह विश्वास न कर पा रही थी कि इतना प्रतिष्ठित व्यक्ति नमक की चोरी कर सकता है।
खैर वही हुआ जो हमेशा से होता आया है माया ने रातों रात न्याय और उसके पहरेदारों को खरीद लिया । जो गवाह थे वह भी ईमान पर टिके न रह सके। धन और रुतबे ने उन्हें अपने चरणों मे झुका लिया। अन्ततः दरोगा वंशीधर अकेले रह गए। कोर्ट से पंडित अलोपीदीन”बाइज्जत”बरी कर दिए गए।
मुंशी वंशीधर को ईमानदारी का प्रचलित इनाम मिला। सप्ताहांत तक उनकी मुअत्तली का फरमान आ गया।
कहानी अंत मे पंडित अलोपीदीन के दूसरे चेहरे से भी परिचित करवाती है जब वह नौकरी से हाथ धो बैठे ईमानदार मुंशी वंशीधर को अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त करने उनके द्वार पर आते हैं।
भाषा की दृष्टि से प्रेमचंद जी ने इस कहानी में भी पाठकों को मालामाल कर दिया है…. आप भी पढ़के देखिए….
लेखक : भूपेंद्र सिंह चौहान