Pitru Paksha se Itar

हिंदू धर्म में पितृ पक्ष का अत्याधिक महत्व है। इस दौरान लोग अपने पितरों का पिंडदान करके उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं। हर वर्ष हम पितरों की प्रसन्नता प्राप्ति और दुखों से मुक्ति पाने का पर्व श्राद्ध 15 दिनों तक मनाते है।

सभी सनातन धर्मावलम्बियों को अपने पितरों की कृपा-आशीर्वाद पाने के लिए श्राद्ध पक्ष के मध्य तर्पण- श्राद्ध कर्म आदि अवश्य करने चाहिए।भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है।

पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।पितृपक्ष में हिन्दू लोग मन कर्म एवं वाणी से संयम का जीवन जीते है।

हिन्दू धर्म के लगभग सभी त्योहार, पौराणिक मान्यताएँ हमारी पारिवारिक प्रणाली के इर्द-गिर्द घूमती है, और आस्था के माध्यम से इसे और दृढ़ करती हैं। हम न केवल उन पितरों की आत्मा शांति का प्रयास करते है, जिनसे हम इस जन्म में जुड़े रहे वरन उन पूर्वजों को भी पूरी श्रद्धा से नमन करते है जिन्हें हमने कभी देखा ही नहीं।हम मानते है कि पितृ पक्ष में पितरों के निमित्त दान धर्म करने से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी।

पारिवारिक संस्था का एक उजला स्वरूप हमें यहाँ दिखाई पड़ता है। परन्तु क्या कभी हमने इसके स्याह पक्ष को देखने का प्रयास किया जो प्रत्यक्ष रूप से मौजूद उन बुजुर्गों में दृश्यमान है जो वर्तमान में हमारे बीच उपस्थित है। शायद उसके लिए आपको बहुत दूर नहीं जाना होगा। शुरुआत अपने आस-पास के घरों में रह रहे माता -पिता और अपने रिश्तेदारों के मध्य से ही करें।

अधिकतर माँ बाप महत्वाकांक्षी और बेहतर रोज़गार की तलाश में घर छोड़ सुदूर देश -विदेश में रह रहे अपने बच्चों के साथ रहने से वंचित है। कुछ बुजुर्ग माता पिता अपने ही घरों में प्रत्येक क्षण तिरस्कार का दंश झेल कर भी संतान के प्रति अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हुए है।

आधुनिक जीवन शैली के फलस्वरूप कई लाचार माओं को घर में सुकून का एक कोना नसीब नहीं होता।जीवनपर्यन्त अपनी आवश्यकताओं में कटौती कर अपने बच्चों की तरक्की का सपना साकार करने वाले माँ बाप को बुढ़ापे में आधारभूत सुविधाओं के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है।अपनी व्यस्तता और परेशानियों के चलते न जाने कितनी बार हम माँ पिता की अवहेलना करते है और उनकी भावनाओं को आहत करते है।

नाना प्रकार के खाद्य पदार्थों से पुरखों को प्रसन्न करने वाले, सोने, चांदी और विभिन्न वस्तुओं का दान करने वाला क्यों इतनी सी बात से अनभिज्ञ है कि जीते जी अपने बड़ों के प्रति उदारता एवं कृतज्ञता का अभाव उनके पितृ ऋण के भार में वृद्धि करता जा रहा है।

अपनी संतानों के दुर्व्यवहार से टूटे हुए वृद्धजनों के दुखी मन से निकली आह की गूंज जन्मों तक सताने वाली है।उनकी आँखों की कोरों की नमी ही हमारे जीवन में अशांति की धारा की शुरुआत है।काश इतनी सी बात का बोध गर पारिवारिक संस्था में रह रहे हर व्यक्ति को हो जाये तो पूर्वजों के साथ ही धरती पर विद्यमान अग्रज भी प्रसन्न और तृप्त हो जाये।

 

शैली भागवत ‘आस’
शिक्षाविद, कवयित्री एवं लेखिका

( इंदौर ) 

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