25 दिसंबर की शाम

( 25 December ki Sham )

 

बुझा हुआ सा रहता था एक इंसान,
जो कहीं भी जाने से कतराता था।
एक शाम चला गया दोस्तों के साथ,
जहाँ क्रिसमस का मेला लगता था।

शहर से कुछ दूर, एक राह खामोश थी।
चर्च से थोड़ी दूर एक लड़की बेहोश थी।
टहलता से कदम चल पड़े थे उसकी ओर,
मोमबत्ती थी हाथ में, पर वो मदहोश थी।

नशे की गिरफ्त में, वो चल नहीं पा रही थी।
डबडबाती आँखों से, वो मुझे बुला रही थी।
हाथ थामकर उसका, चर्च तक ले आया मैं,
पूरी राह में वो बस मुझे ही देखे जा रही थी।

उस दिन हम उसे वहीं छोड़कर वापस आ गये।
ध्यान उसका रहा नहीं, अपनों में व्यस्त हो गये।
फिर एक दिन, जब दुर्घटना से हताहत हुए।
भान ही नहीं, कब अस्पताल तक पहुँच गये।

दो दिन बाद होश आया, तो कोई चिल्लाया।
अरे देखो देखो, सेंटा-क्लॉज को होश आया।
आँख खुली तो वही लड़की नजर आयी।
उसे देख, लबों पर मुस्कुराहट बिखर आयी।

अगले सात दिवस, वो हर क्षण खयाल रख रही थी।
कौन कौन है परिवार में, बस यही बात पूछ रही थी।
जब कहा गया मुझे, कि तुम अब घर जा सकते हो,
वो मेरे चेहरे की नजर आती मायूसी को बूझ रही थी।

ये लो मेरा फोन, और अभी घर से किसी को बुलाओ।
बहुत वक्त हो गया है, अस्पताल का बिल न बढ़ाओ।
मेरे परिवार में बस मैं हूँ, यह सुन कर वह घबरायी।
फिर खुद से गाड़ी मंगवाकर, घर पर छोड़ने आयी।

हर दवा का समय वो मुझे समझाती रही,
पर मेरी नजर उसके चेहरे पर ठहरी रही।
जाते वक्त मैनें पूछा, नाम क्या है तुम्हारा,
वो मुस्कुराते हुए बस मेरी तरफ देखती रही।

बिना अपना नाम बताये ही वो घर से चली गयी।
क्रिसमस पर फिर से चर्च पर मिलने का कह गयी।
धीरे धीरे फिर से दिसम्बर का महिना आ गया।
इस बार, मैं सबको चर्च चलने को कहता रहा।

पर सबकी मनाही, मैं अकेला चर्च चला गया।
विश्वास था शायद कि वो लड़की मिल जाये।
ढूंढता रहा मैं उसे वहाँ इधर उधर हर जगह,
काश! वो लड़की बस एक बार दिख जाये।

अफसोस! थक हारकर वापस लौटने लगा।
कार के पास किसी नें मेरा हाथ पकड़ लिया।
सान्ता-क्लॉज! मेरा गिफ्ट दिये बिना कहाँ चले?
इन शब्दों से उसनें मेरा दिल जकड़ लिया।

नाम तक नहीं पता था मुझे उसका।
पर उसे गले लगाकर मैं वहीं रो पड़ा,
इतना महंगा गिफ्ट दोगे क्या हमें,
उसकी इस बात मैं रहा अवाक् खड़ा।

आँसू पोंछकर उसने, उसने बस एक सवाल किया
सारी जिंदगी गिफ्ट देने पड़ेंगे, मंजूर है मेरे पिया?

 

रचनाकार : कृष्ण कान्त सेन
बाराँ ( राजस्थान )

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