शांति रूपी धन
गर्मियों के दिनों में भी अक्सर कमाई करने के उद्देश्य से अधिकांश निर्धन लोग कुछ न कुछ व्यवसाय जरूर करते हैं,
ऐसे ही एक घटना है जबलपुर स्थित कृष्णा नगर की एक शरीर से दुर्बल, पतले, दुबले बूढ़े व्यक्ति हाथ कंपकपाते हुए चेहरा गर्म हवा के थपेड़ों से झुलस चुका था। बच्चे भी बड़े हो गए थे और उनका साथ छोड़ दिये थे,
घर में अपनी पत्नी के साथ बड़े मुश्किल से रोज़-मर्रा की जरूरतों को पूरा करते थे। अक्सर पत्नी बीमार रहती थी। वे बूढ़े व्यक्ति घर का खर्च चलाने के लिए अक्सर मई-जून के दिनों में गन्ने का रस बेचते थे। उसी से जो कुछ कमाई हो गई तो ठीक नहीं, भगवान भरोसे अपना जीवन यापन करते।
मैं अक्सर उधर से गुजरते वक्त उनके ठेले के पास थोड़ा रुकता था और हाल-चाल पूछ लेता था।
वो अक्सर भरी हुई आँखों से देखते और रुँधे हुए स्वर से हमेशा यही बोलते थे,”सब बढ़िया है, बेटा। प्रभु की दया है।”
एक दिन शाम की बात थी, मैं बोला, “दादा, अपने यहाँ एक दिन मेरा निमंत्रण करो कभी।” बोले, “चलो बेटा, आज ही चलो।” मैं भी तैयार हो गया, और उनका ठेला स्वयं चलाने लगा। धीरे-धीरे चलने के वावजूद, बूढ़े दादा की सांसें तेज थीं, स्पष्ट सुनाई दे रही थीं।
घर पहुंचा तो देखा, एक बूढ़ी औरत लेटी हुई थी। दादा ने जोर से बोला, “देखो, कुसुम, तुम्हारे घर में मेहमान आए हैं।” वह करवट लेकर देखी और बोली, “आओ, बेटा, बैठो।” मैं पास में ही जाकर बैठ गया।
वह खाट से उठी और ठंडा पानी लेकर एक लोटे में आई बोली, “पानी पी लो, बेटा।” मैं पानी पी रहा था। वह अचंभित नज़रों से मुझे देख रही थी। घर की व्यवस्था भी कुछ ठीक नहीं थी।
वही पुराना खपरैल का घर था, सरकार से भी कोई मदद नहीं मिली थी जरूरत के समान यहाँ तक की पर्याप्त राशन की भी व्यवस्था नहीं थी,मैं यह समझ गया की इनके पास कुछ व्यवस्था नहीं है मैं बोला”आज बाजार चलोगी, अम्मा?” उन्होंने बोला, “बेटा, क्या लेने जाऊंगी?
पैसे भी तो नहीं हैं। मैं बोला, मैं दूंगा पैसे चलो बोलीं, नहीं-नहीं, बेटा, कोई बात नहीं अपने पास सब कुछ है कुछ कमी नहीं है,इतने मे बूढ़े दादा आ गए कहीं शायद उधार पैसे मांगने गए थे।
आकर चुपचाप बैठ गए, और इसके बाद अपना दैनिक कार्य करने लगे। मैंने एक दोस्त को फोन किया कि एक आटो लेकर और उसमें कुछ राशन, सब्जी और कुछ जरूरी सामान लेकर आ जाओ।
तब तक वह बूढ़े दादा भगवान श्री कृष्ण की संध्या आरती कर रहे थे, कुछ ही समय बाद भगवान का चरणामृत और एक तुलसी का दल प्रसाद के रूप में दिया,अद्भुत स्वाद था वह प्रसाद भक्ति के रस से भरा हुआ था, अचानक एक ऑटो दादा के घर के सामने रुका और दादा आश्चर्य चकित हो गए, दोस्त और मैं दोनों लोग समान निकाल कर नीचे रखा और ऑटो वाले को विदा किया, उनका घर देखते ही देखते लाये हुए समान से भर गया।
उन दोनों के हृदय में अपार स्नेह था,आंखों में खुशी के आंसू थे, एक नजर भगवान की मूर्ति की तरफ देखते और एक नजर हमें, हम दोनों भी अपार सुख और शांति का अनुभव कर रहे थे।
ऐसा सुख का अनुभव कभी कहीं तीर्थ जाने पर भी नहीं किया था मन बिल्कुल गंगा जल सा पवित्र था। एक छोटी सी सहायता कितना सुख दे सकती है। इसी लिए समाज में रहते हुए हमेशा कुछ न कुछ असहाय गरीबों वृद्ध जनों की मदद करते रहना चाहिए।
आनंद त्रिपाठी “आतुर “
(मऊगंज म. प्र.)