गांव देहात की यादें | Gaon Dehat Ki Yaadein
मेरे पड़ोस में एक सालिकराम चाचा हैं जो कि अपने समय के कक्षा 8 तक पढ़े हैं। वे अक्सर तर्क करते रहते हैं कि आज की पढ़ाई भी कोई पढ़ाई है। ना आज का इंटर, बी ए, ना हमारे जमाने का जूनियर हाई स्कूल ।
विशेष कर बच्चों से वें गणित के कठ बैठी सवाल पूछते यह सवाल बड़े उलझन भरें होते थे । जिनका किताबों से कोई सरोकार नहीं होता।
यदि आप उनके सवालों को बता लिए तो ठीक नहीं तो कहते देख लिया ना, चलो हम तुम्हें बताते हैं और फिर उनकी गणित निकल आती । उनको गांव में पंडित भी कहते हैं। वैसे वो पटेल है।
वह किसी पंडित के यहां पत्रा पूछने नहीं जाते बल्कि स्वयं देखते हैं । पूरे गांव के लोग उनसे शाइत , शुभ दिन , वार भी पूछने आते हैं । हमारी बस्ती में पंडित नहीं रहते इसलिए गांव की माताएं बहने उन्हीं से पूछ लेती हैं।
वैसे वह बहुत अच्छे इंसान हैं। हमारी उनसे बहुत पटती भी है। वे कर्म पर विश्वास रखने वाले इंसान हैं । आज भी लगभग 80 वर्ष के होने के पश्चात भी बाजार से सब्जी बेचकर अपना खर्च स्वयं चलाते हैं।
मेरे पड़ोस में लाला भाई और रमाकांत भाई हैं । दोनों में खूब पटती है परंतु दोनों लोग जमकर शराब पीने वाले रहे । लेकिन बचपन में मैं देखता था कि वह बहुत अदब के साथ बोलते थे।
कभी ज्यादा गाली गलौज नहीं करते थे परंतु लाला भाई अपनी पत्नी को गुस्सा चढ़ने पर मार दिया करते थे । उनके बच्चे छोटे थे जिससे ज्यादा विरोध नहीं कर पाते थे।
एक बार उनका एक्सीडेंट हो गया जिससे उनके शरीर में बहुत गहरी चोट आई। लंबे समय तक प्लास्टर चढ़ा रहा परंतु पिछले कुछ सालों पूर्व उनका देहांत हो गया।
इसी प्रकार रमाकांत भाई को भी पेट में जल भर जाने के कारण आज वह भी जीवित नहीं बचे। मैने पड़ोस में देखा था कि किसी की चिट्ठी आतीं थी तो उन्हें पढ़वाने ले जाते थे। मेरे बड़े भैया जब कमाने के लिए जाते थे तो अम्मा चिट्ठी उन्हीं से लिखवाती थी और चिट्ठी आने पर अक्सर उन्हीं से पढ़वाती थी।
भाग्य के थपेड़ों ने उनको आजीवन ठोकर मारता रहा। कभी ठेकेदारी, कभी पुलिस में नौकरी परंतु कहीं स्थाई नहीं हो सके। शराब ने उनका जीवन बर्बाद कर दिया ।
शराब है ही ऐसी डायन जो बड़े-बड़े की बुद्धि को नष्ट कर देती है। बचपन में मैं मिट्टी के खिलौने खूब बनाता था । तालाब से मिट्टी लाकर उससे मोटर गाड़ी, चिड़िया, हाथी, तोता, गणेश, लक्ष्मी आदि बनाया करता था। दिवाली में छोटा सा घर बनाता था। उसे अच्छी प्रकार से सजाता था ।
कुछ गांव के उजड्ड बच्चे घरों के अंदर पटाखे फोड़ देते थे। जिससे घर टूट कर तहस-नहस हो जाता था। मैं उन्हें खूब बिगड़ता था। लेकिन मां लड़ने से मना करती।
जो सुख और आनंद हमें मिट्टी के खिलौने एवं घर बनाने में आता था वह सुख महगे -महगे खिलौने से हमें नहीं प्राप्त हो सकेगा। अपने हाथों द्वारा बनाए वस्तु का आनंद ही कुछ और होता है उसका आनंद बनाने वाला ही जानता है।
अब तो शहरों के डॉक्टर भी बंगले में रहने वाले बच्चों को बीमार होने पर हिदायत के तौर पर कहने लगे हैं कि यदि आपको अपने बच्चों को स्वस्थ रखना है तो उसे मिट्टी में खेलने दीजिए।
मिट्टी में खेलने से उसकी इम्युनिटी पावर बढ़ेगी जिससे वह अंदर से मजबूत होगा । देखा गया है कि ज्यादा सुख सुविधा में पलने वाले बच्चे अत्याधिक बीमार होते हैं ।
जबकि खुले आसमान में नंगे बदन टहलने वाले गरीब घरों के बच्चे उतना बीमार नहीं होते । ऐसे मां-बाप जो बच्चों को खुली हवा में प्राकृतिक रूप से खेलने नहीं देते वें उनके बहुत बड़े दुश्मन है । बच्चों का स्वस्थ विकास प्रकृति के सानिध्य में ही होता है।
बचपन में बिताए मस्ती के छणों को यदि एक-एक कर लिखने लगू तो उसके लिए अलग ग्रंथ ही बनाना पड़ेगा। घर में सभी मुझे बाबा कहकर बुलाते थे। जिससे लगता है कहीं ना कहीं बाबापन का संस्कार हमारे मन में बहुत गहरा गया है । गांव में गुल्ली -डंडा खूब पहले खेला जाता रहा।
प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी ‘गुल्ली डंडा’ प्रसिद्ध है उसे कमरे में बैठकर वीडियो गेम खेलने वाले बच्चों से उसकी तुलना नहीं की जा सकती।
इन खेलों से जहां शरीर स्वस्थ और मजबूत होता था वही मन में प्रसन्नता आती है । कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में ही शांत मन का वास होता है ।
परंतु कमरे में बैठकर वीडियो गेम खेलने या टीवी देखने से जहां एक ओर शरीर बीमार हो जाता है। वहीं सर में तनाव बढ़ जाता है ।मन बोझिल व गुस्सैल हो जाता है। टीवी पर अश्लील चित्र देखने से भाव में उत्तेजक विचार आने लगते हैं।
यही कारण है कि आज भी युवा पीढ़ी में हताशा निराशा के लक्षण स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। बच्चों के बीच जो आज इतनी हिंसा बढ़ रहे हैं । उसमें से एक बहुत बड़ा कारण बच्चों का हिंसक फिल्में देखना, वीडियो गेम खेलना, गंदी नेट की साइड देखना है ।
जाने अनजाने कितना उनका इससे नुकसान होगा यह वे नहीं जानते। मेरे गांव में राम अचल जी जो की सर्व समाज जूनियर हाई स्कूल में प्रधानाचार्य थे । उनसे मेरी खूब पटती थी ।
वैसे हमारे सामान उनके बच्चे थे। परंतु हम लोग मित्रों जैसे ही बातें करते थे। उन्हें अपनी ससुराल में जायज़ाद मिले हुए थे इसलिए वह अक्सर वही रहते थे।
बाद में उन्हें हृदय रोग हो गया जिससे वे अब अपने गांव में आकर रहने लगे थे ।वह इतने सरल इंसान थे कि बाद में उन्होंने मुझसे ही गुरु दीक्षा लिया । इस प्रकार से हमारे गुरु भाई बन गए।
वे अपने जीवन से असंतुष्ट थे। इसका एक प्रमुख कारण था कि उनके पिताजी ने उनकी शादी धन के लालच में ऐसी लड़की से कर दिया था जिसको कोई भाई नहीं था ।
उन्हें ससुराल में रहना रास नहीं आया । जिसके कारण बड़े-बड़े दाढ़ी बाल बढ़ाकर बाबा जी की तरह रहने लगे थे । इसी गम ने उन्हें हृदय रोगी बना दिया।
बच्चों को पढ़ाने का उन्हें अच्छा अनुभव था। एक दिन हृदयाघात हो जाने के कारण अचानक उनकी मृत्यु हो गई । उनके मरने के बाद में मुझे गांव जैसे सूना सूना सा लगने लगा है ।मैं गांव में जाता भी हूं तो थोड़ी देर टहल घूम कर लौट आता हूं।
उनके मरने के बाद हमने उनकी जीवनी भी लिखी लेकिन उसकी छपाई के लिए ना तो उनके भाई तैयार हुए ,ना ही बीवी बच्चे। जिस स्कूल में प्रधानाचार्य थे उन्होंने भी पल्ला झाड़ लिया।
दुनिया कितनी खुदगर्ज है इसका आभास मुझे हुआ । उन लोगों को लग रहा था कि इसमें मेरा कोई स्वार्थ है । धीरे-धीरे वर्षों प्रयास करने के पश्चात भी उसे छपा नहीं सका। लेकिन मैं उसे छपा करके ही रहूंगा । वह पुस्तक मेरी मित्रता की मिसाल होगी।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )